भारतीय चित्रकला का विकास - सामान्य अध्ययन-भूगोल, विज्ञान, इतिहास, कला और संस्कृति

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Tuesday, July 23, 2019

भारतीय चित्रकला का विकास


मानव सभ्यता के आरम्भ से ही चित्र मनुष्य की भावाभिव्यक्ति के साधन रहे हैं। वस्तुतः भाषा और लिपि के आविष्कार से भी पहले मनुष्य ने आत्माभिव्यक्ति के लिए चित्रकारी को अपनाया। आदिमकालीन गुफाओं से मिले रेखाचित्र इसके प्रमाण हैं। भीमबेतका और होशंगाबाद की गुफाओं से मिले चित्रों से स्पष्ट है कि भारत में भी चित्रकला का विकास प्रागैतिहासिक काल के दौरान ही हुआ।
       होशंगाबाद और भीमबेटका (भोपाल से 40 किमी दक्षिण )  के गुफा चित्र प्राचीन भारतीय शैल चित्रकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। पुरातत्वविदों के अनुसार भीमबेटका की गुफाओं से प्राप्त कुछ चित्र लगभग 30000 वर्ष पुराने हैं। समय विस्तार की दृष्टि से देखें तो ये चित्र पुरा पाषाणकाल से लेकर आरंभिक मध्यकाल तक के हैं। भीमबेटका की लगभग 500 गुफाओं में शैल चित्र प्राप्त हुए हैं। ये चित्र न सिर्फ गुफाओं की दीवारों पर उकेरे गए हैं, बल्कि उनकी ऊंची छतों पर भी उत्कीर्ण हैं। चित्रों में ज़्यादातर श्वेत और लाल रंगों का प्रयोग मिलता है। कहीं कहीं हरे और पीले रंगों का प्रयोग भी दिखता है । रंगों को बनाने के लिए संभवतः मैंगनीज़ , हैमेटाईट , लाल पत्थर , लकड़ी का कोयले  , हरी पत्तियों और पशुओं की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता थ।
              भीमबेटका का नामकरण महाभारत के पात्र भीम के नाम पर हुआ माना जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है –‘भीम की बैठक’। भीमबेटका की गुफाओं की खोज 1957-58 में पुरातत्वविद विष्णु वाकनकर ने की।
इन चित्रों में शिकार के दृश्यों के अतिरिक्त स्त्रियों और पशु – पक्षियों के चित्र बहुतायत मिलते हैं। मध्य पाषाण काल के चित्रों में आदिमानव द्वारा प्रयोग किये जाने वाले अस्त्र –शस्त्रों , पक्षियों के चित्रों के अतिरिक्त विविध विषयों के चित्र मिलते हैं। इनमें सामूहिक नृत्य, मां और बच्चे का चित्र , वाद्य यंत्रों के चित्र तथा गर्भवती महिला के चित्र उल्लेखनीय हैं।
          होशंगाबाद और भीमबेटका के अतिरिक्त मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) तथा नरसिंहगढ़ (मध्य प्रदेश) जैसे स्थानों से भी गुफा चित्र प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा सभ्यता के चित्रकला के नमूने उनके मृदभांडों से प्राप्त हुए हैं।
          हड़प्पा सभ्यता के बाद शुंग काल तक चित्रकारी के पुरातात्विक साक्ष्य तो प्राप्य नहीं हैं, लेकिन वैदिक साहित्य और उनके बाद बौद्ध ग्रंथों में भी चित्रकला की चर्चा इस बात का प्रमाण है कि उस काल के लोग चित्रकला से अनजान नहीं थे।
               पहली शताब्दी ई पू के आस पास से भारतीय चित्रकला के महत्वपूर्ण साक्ष्य मिलने लगते हैं . अजंता की गुफाओं के कुछ शुरूआती चित्र भी लगभग इसी समय के माने जाते हैं . जातक कथाओं पर आधारित बौद्ध धर्म से संबंधित ये चित्र प्रारंभिक भारतीय चित्रकला के अत्यधिक महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं .

भारतीय चित्रकला के षडांग

संभवतया प्रथम शताब्दी ई पू के आस पास ही भारतीय चित्रकला के षडांग (Six Limbs of Indian painting ) विकसित हुए . तीसरी सदी (अनुमानित) के वात्स्यायन अपनी पुस्तक कामसूत्र में षडांग की विस्तृत चर्चा करते हैं , लेकिन ऐसा प्रतीत होता कि यह सिद्धांत वात्स्यायन के काफी पहले से ही अस्तित्व में था . भारतीय चित्रकला के ये 6 अंग निम्नलिखित हैं :
(i)                  रूपभेद : प्रत्यक्ष के विभिन्न रूपों का ज्ञान
(ii)                प्रमाणम : परिप्रेक्ष्य ,माप और संरचना का ज्ञान
(iii)               भाव : अनुभूतियों के चित्रण का ज्ञान
(iv)              लावण्य योजनम : सौन्दर्य सृष्टि और कलात्मक प्रस्तुति
(v)                सादृश्यं : दो  विभिन्न वस्तुओं में समानता का ज्ञान
(vi)              वर्णिकभंगम : कूची और रंगों का कलात्मक प्रयोग

भित्तिचित्र

भित्तिचित्र कला (Mural) सबसे पुरानी चित्रकला है। प्रागैतिहासिक युग में लोगों ने गुफाओं की दीवारों पर चित्र बनाने की शुरुआत की। दीवारों के अतिरिक्त गुफाओं की छतों का उपयोग भी चित्र बनाने के लिए किया गया। पाषाण काल के बाद भी गुप्तकाल तक भित्ति चित्रों के विविध रूप भारतीय इतिहास में दिखते हैं। अजंता एलोरा की गुफाएँ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। ये चित्र काफी बड़े कैनवास के हैं।

अजंता के गुफा चित्र

महाराष्ट्र के अजंता में घोड़े के नाल की आकार में फैले 29 गुफाओं में मिले भित्ति चित्र इस श्रेणी के प्राचीनतम संरक्षित चित्रों में से है। अजंता गुफाएँ सन् 1983 से युनेस्को की विश्व धरोहर स्थल घोषित है। ये चित्र दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व से लेकर चौथी शताब्दी ईस्वी तक के हैं। गुफा संख्या 9 और 10 के चित्र शुंग कालीन हैं, जबकि शेष गुप्तकाल में चित्रित हैं। यहाँ भित्ति चित्रों के अतिरिक्त फ्रेस्को (ताजे प्लास्टर पर बनाए गए चित्र) भी उपलब्ध हैं। इन चित्रों के विषय बौद्ध धर्म की जातक कथाओं से लेकर फूलों-पौधों तक हैं।

एलोरा के चित्र

एलोरा के भित्ति चित्र राष्ट्रकूट शासकों द्वारा विकसित कैलाश मंदिर और उसके आसपास की गुफाओं की दीवारों पर बनाए गए हैं। शुरुआती चित्र विष्णु और लक्ष्मी को चित्रित करते हैं, जबकि परवर्ती चित्र शिव को। इसके अतिरिक्त यहाँ बौद्ध और जैन धर्म से संबन्धित चित्र भी हैं।

बाघ की गुफाएँ

मध्यप्रदेश के बाघ के गुफा चित्र अजंता के चित्रों की श्रेणी में ही आते हैं।

लघु चित्र (Miniature Paintings)

लघु चित्रकारी (Miniature painting) भारतीय शास्त्रीय परम्परा के अनुसार बनाई गई चित्रकारी शिल्प है। “समरांगण सूत्रधार” नामक वास्तुशास्त्र में इसका विस्तृत रूप से उल्लेख मिलता है। इस शिल्प की कलाकृतियाँ सैंकड़ों वर्षों के बाद भी अब तक इतनी नवीन लगती हैं मानो ये कुछ वर्ष पूर्व ही चित्रित की गई हों।
         कागज पर लघु चित्रकारी करने के लिए सबसे पहले आधार रंग बनाया जाता है। इसके लिए कागज पर खड़िया मिट्टी (चॉक मिट्टी) के चार से पांच स्तर चढ़ाने की आवश्यकता होती है। इसके बाद चित्रकारी में रंगों को समतल करने के लिए दबाव के साथ उसे रगड़ा जाता है। पृष्ठभूमि बनाने के बाद पोशाक की ओर ध्यान दिया जाता है। अंत में आभूषणों और चेहरे सहित अन्य अंगों की रचना की जाती है। पूरी कलाकृति निर्मित हो जाने के बाद उनमें रंग भरे जाते हैं। आभूषणों में स्वर्ण और चांदी के रंगों को बड़ी कुशलतापूर्वक भरा जाता है। लघु चित्रकारी बनाने में प्राचीन समय से ही प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग किया जाता था। इस चित्रकारी में विभिन्न प्राकृतिक पत्थरों का भी प्रयोग किया जाता था यथा मूंगा, लाजवर्त, हल्दी आदि।
लघु चित्र पुस्तकों और अल्बमों में प्रयोग किए जाने के लिए बनाए जाते थे।
पाल लघु चित्र
यह एक प्रमुख भारतीय चित्रकला शैली हैं। ९वीं से १२वीं शताब्दी तक बंगाल में पालवंश के शासकों धर्मपाल और देवपाल के शासक काल में विशेष रूप से विकसित होने वाली चित्रकला पाल शैली थी। पाल शैली की विषयवस्तु बौद्ध धर्म से प्रभावित रही हैं।
अपभ्रंश लघुचित्र शैली
यह पश्चिम भारत में विकसित लघु चित्रों की चित्रकला शैली थी, जो ११वीं से १५वीं शताब्दी के बीच प्रारम्भ में ताड़ पत्रों पर और बाद में कागज़ पर चित्रित हुई। ताड़पत्रों पर रचित सबसे प्राचीन ग्रंथ "अधिनियुक्ति वृत्ति" मानी जाती है जिसमें कामदेव, श्रीलक्ष्मी पूर्णघट के चित्र पाये जाते है।
मुग़ल लघुचित्र
मुगल लघुचित्रों में दरबारी दृश्य, शिकार चित्र, पेड़े-पौधे व पशु-पक्षी आदि शामिल थे। मुगलकाल में हमजानामा, बाबरनामा और अकबरनामा को भी लघु चित्रकलाओं से सुसज्जित किया गया था। इस काल के चित्रों में देवी-देवताओं के चित्रण की अपेक्षा शासकों के चित्रण पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया।
राजपूत लघुचित्र
मुगल काल के अंतिम दिनों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक राजपूत राज्यों की उत्पत्ति हो गई, जिनमें मेवाड़, बूंदी, मालवा आदि मुख्य हैं। इन राज्यों में विशिष्ट प्रकार की चित्रकला शैली का विकास हुआ। इन विभिन्न शैलियों में की विशेषताओं के कारण उन्हे राजपूत शैली का नाम प्रदान किया गया।
लोक जीवन का सानिध्य, भाव प्रवणता का प्राचुर्य, विषय-वस्तु का वैविध्य, वर्ण वैविध्य, प्रकृति परिवेश देश काल के अनुरूप आदि विशेषताओं के आधार पर इसकी अपनी पहचान है। धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों में पोषित चित्रकला में लोक जीवन की भावनाओं का बाहुल्य, भक्ति और श्रृंगार का सजीव चित्रण तथा चटकीले, चमकदार और दीप्तियुक्त रंगों का संयोजन विशेष रूप से देखा जा सकता है। चित्रकारों ने विभिन्न ऋतुओं का श्रृंगारिक चित्रण कर उनका मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अंकन किया है।
भौगोलिक एवं सांस्कृतिक आधार पर राजस्थानी चित्रकला को चार शैलियों में विभक्त कर सकते हैं।
(1) मेवाड़ शैली - चावंड, उदयपुर, नाथद्वारा, देवगढ़ आदि।
(2) मारवाड़ शैली - जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़,जैसलमेर,नागौर,अजमेर आदि।
(3) हाड़ौती शैली - बूँदी, कोटा,झालावाड,दुगारी आदि।
(4) ढूँढाड़ शैली - आम्बेर, जयपुर, अलवर, उणियारा, शेखावटी आदि।

दक्कनी लघुचित्र शैली

यह एक प्रमुख भारतीय चित्रकला शैली हैं। इस शैली का प्रधान केन्द्र बीजापुर था किन्तु इसका विस्तार गोलकुण्डा तथा अहमदनगर राज्यों में भी था। रागमाला के चित्रों का चित्रांकन इस शैली में विशेष रूप से किया गया। इस शैली के महान संरक्षकों में बीजापुर के अली आदिल शाह तथा उसके उत्तराधिकारी इब्राहिम शाह थे।

पहाड़ी चित्रकला

पहाड़ी चित्रकला स्कूल का विकास 17 वीं से १९ वी सदी के दौरान जम्मू से अल्मोड़ा और गढ़वाल एवं उप-हिमालयी भारत एवं हिमाचल प्रदेश में हुआ। प्रत्येक शैली में एक दुसरे से भिन्नता दिखाई पड़ती हैं। जैसे बसोली चित्रकला जो जम्मू और कश्मीर में बसोली से उत्पन्न हुई हैं में बड़े गहरे रंगों का प्रयोग होता हैं एवं कांगड़ा पेंटिंग् नाजुक एवं गीतात्मक शैली के होते हैं। कांगड़ा शैली अन्य स्कूलों के विकास से पहले पहाड़ी चित्रकला शैली का पर्याय बन गया था। कांगड़ा चित्रकला की शैली राधा और कृष्ण की चित्रों के साथ अपने शिखर पर पहुंच गई, जो जयदेव की गीता गोविंद से प्रेरित थी।
पहाड़ी चित्रकला का उद्भव मुगल चित्रकला से ही हुआ था। यदयपि इसे राजपूत राजाओं का भी सरंक्षण प्राप्त हुआ था।

तंजौर चित्रकला

तंजौर कि चित्रकारी महान् पारंपरिक कला रूपों में से है, जिसने भारत को विश्वप्रसिद्ध बनाया है। इनका विषय मूलत: पौराणिक है। ये धार्मिक चित्र दर्शाते हैं कि आध्यात्मिकता रचनात्मक कार्य का सार है। कला के कुछ रूप ही तंजौर की चित्रकारी की सुंदरता और भव्यता से मेल खाते हैं। चेन्नई से 300 कि.मी. दूर तंजावुर में शुरू हुई यह कला चोल साम्राज्य के राज्य काल में सांस्कृतिक विकास की ऊँचाई पर पहुँची।

आधुनिक चित्रकला

कंपनी चित्रकला- सेवक राम, ईश्वरी प्रसाद , गुलाम अली खान इस दौर के प्रमुख चित्रकार रहे हैं। लार्ड वेलेस्ली और लॉर्ड इंपे द्वारा इन्हे संरक्षण प्रदान किया गया। दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई आदि ब्रिटिश प्रभाव के नगर इसके प्रमुख केंद्र रहे। इस दौर भारतीय वनस्पतियों, फूलों और पशु-पक्षियों के चित्रण पर ज़ोर रहा।
राजा रवि वर्मा
राजा रवि वर्मा यथार्थवादी शिल्प और तैल रंगों (आयल कलर्स ) का प्रयोग करने वाले पहले भारतीय चित्रकार माने जाते हैं। यूरोपीय यथार्थवाद के प्रयोग ने राजा रवि वर्मा के चित्रों को सही परिप्रेक्ष्य प्रदान किया। वियेना की चित्र प्रदर्शनी में राजा रवि वर्मा ने स्वर्ण पदक प्राप्त किया और उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। ड्यूक ऑफ़ बर्मिंघम ने उनकी चित्रकृति ‘शकुंतला’ के लिए 50 हज़ार अदा किये।  जिस समय यूरोपीय चित्रकार अपने चित्रों में भारत को भूखे –नंगों और जादू-टोने के देश के रूप में चित्रित कर रहे थे, उस समय राजा रवि वर्मा ने अपने चित्रों के विषय के रूप में भारत के मिथकीय और पौराणिक चरित्रों को उठाया। इसके अतिरिक्त उन्होंने शिवाजी और बाल गंगाधर तिलक के पोर्ट्रेट भी बनाए। राजा रवि वर्मा ने धुन्धिराज गोविन्द फाल्के (दादा साहब फाल्के) के साथ मिलकर मुंबई में एक छापाखाना भी स्थापित किया। 1906 में अपनी मृत्यु के समय तक राजा रवि वर्मा चित्रकारी करते रहे। इन्हें राफेल ऑफ इंडिया भी कहा जाता है। राजा रवि वर्मा आधुनिक भारतीय चित्रकला के अग्रदूत भी कहे जाते हैं। लेडी इन मूनलाइट, मदर इंडिया आदि इनकी प्रमुख चित्रकृतियाँ हैं।

आधुनिक भारतीय चित्रकला का बंगाल स्कूल  

इस स्कूल के प्रमुख चित्रकारों में अवनीन्द्र नाथ टैगोर, गगनेन्द्र नाथ टैगोर, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि महत्वपूर्ण हैं। अरेबियन नाइट अवनीन्द्र नाथ टैगोर की चर्चित कृति है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने काले रंगों का प्रभावी प्रयोग पृष्ठभूमि में किया। सादगी बंगाल स्कूल की विशेषता रही है। 1940-1960 तक भारतीय चित्रकला पर इस स्कूल का प्रभाव देखा जा सकता है।

क्यूबिस्टिक स्कूल

इस स्कूल के चित्रकार यूरोपीय क्यूबिस्ट आंदोलन से प्रेरित थे। इनका पूरा ज़ोर रेखाओं और रंगों का संतुलन साधने पर था। भावों के चित्रण के लिए टूटी फूटी आकृतियों का सहारा लेते थे। एम एफ हुसैन इस स्कूल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पेंटर हैं।

प्रगतिवादी चित्रकला

प्रगतिशील कलाकार संघ से जुड़े कलाकारों ने प्रगतिवादी चित्रशैली की शुरुआत की। इनकी कला दृष्टि यथार्थवादी थी। प्रसिद्ध साहित्यकार मुल्कराज आनंद ने इस आंदोलन का समर्थन किया। फ्रांसिस न्यूटन सूजा, एस एच रज़ा, सतीश गुजराल आदि इस धारा के प्रमुख चित्रकार रहे हैं। कालांतर में हुसैन भी इस आंदोलन से जुड़े।

लोक प्रचलित चित्रकलाएँ

मधुबनी

माना जाता है ये चित्र राजा जनक ने राम-सीता के विवाह के दौरान महिला कलाकारों से बनवाए थे। मिथिला क्षेत्र के कई गांवों की महिलाएँ इस कला में दक्ष हैं। अपने असली रूप में तो ये पेंटिंग गांवों की मिट्टी से लीपी गई झोपड़ियों में देखने को मिलती थी, लेकिन इसे अब कपड़े या फिर पेपर के कैनवास पर खूब बनाया जाता है। समय के साथ साथ चित्रकारी की इस विधा में पासवान जाति के समुदाय के लोगों द्वारा राजा शैलेश के जीवन वृतान्त का चित्रण भी किया जाने लगा। इस समुदाय के लोग राजा सैलेश को अपने देवता के रूप में पूजते भी हैं।
इस चित्र में खासतौर पर कुल देवता का भी चित्रण होता है। हिन्दू देव-देवताओं की तस्वीर, प्राकृतिक नजारे जैसे- सूर्य व चंद्रमा, धार्मिक पेड़-पौधे जैसे- तुलसी और विवाह के दृश्य देखने को मिलेंगे। मधुबनी पेंटिंग दो तरह की होतीं हैं- भित्ति चित्र और अरिपन या अल्पना।
       चटख रंगों का इस्तेमाल खूब किया जाता है। जैसे गहरा लाल रंग, हरा, नीला और काला। कुछ हल्के रंगों से भी चित्र में निखार लाया जाता है, जैसे- पीला, गुलाबी और नींबू रंग। यह जानकर हैरानी होगी की इन रंगों को घरेलू चीजों से ही बनाया जाता है, जैसे- दूध, हल्दी, केले के पत्ते, लाल रंग के लिऐ पीपल की छाल प्रयोग किया जाता है। भित्ति चित्रों के अलावा अल्पना का भी बिहार में काफी चलन है। इसे बैठक या फिर दरवाजे के बाहर बनाया जाता है। पहले इसे इसलिए बनाया जाता था ताकि खेतों में फसल की पैदावार अच्छी हो लेकिन आजकल इसे घर के शुभ कामों में बनाया जाता है। चित्र बनाने के लिए माचिस की तीली व बाँस की कलम को प्रयोग में लाया जाता है। रंग की पकड़ बनाने के लिए बबूल के वृक्ष की गोंद को मिलाया जाता है।

पट्टचित्र

पट्टचित्र ओड़िशा की पारम्परिक चित्रकला है। इन चित्रों में हिन्दू देवी-देवताओं को दर्शाया जाता है। 'पट्ट' का अर्थ 'कपड़ा' होता है अर्थात ये कपड़े पर बनाए गए चित्र होते हैं। जले नारियल के छिलके, काजल, रामराज आदि का रंगो के रूप में प्रयोग किया जाता है। पेंसिल का प्रयोग नहीं किया जाता। ब्रश का प्रयोग सिर्फ बाहरी रेखाओं के अंकन के लिए होता है।

कलमकारी

क़लमकारी में हाथ से सूती कपड़े पर रंगीन ब्लॉक से छाप बनाई जाती है। क़लमकारी शब्द का प्रयोग कला एवं निर्मित कपड़े दोनो के लिए किया जाता है। मुख्य रूप से यह कला भारत एवं ईरान में प्रचलित है। इसकी जड़े आंध्र के श्रीकलाहस्ति और मछलीपुरम नामक नगरों में हैं। श्रीकलाहस्ति में आज भी कलमकारी के लिये कलम का उपयोग होता है जबकि मछलीपुरम में ठप्पों का चलन है।
       सर्वप्रथम वस्त्र को रात भर गाय के गोबर के घोल में डुबोकर रखा जाता है। अगले दिन इसे धूप में सुखाकर दूध, माँड के घोल में डुबोया जाता है। बाद में अच्छी तरह से सुखाकर इसे नरम करने के लिए लकड़ी के दस्ते से कूटा जाता है। इस पर चित्रकारी करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक पौधों, पत्तियों, पेड़ों की छाल, तनों आदि का उपयोग किया जाता है।

वर्ली चित्र


महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में वरली जाति के आदिवासियों का निवास है। इस आदिवासी जाति की कला ही वरली लोक कला के नाम से जानी जाती है। वरली लोक कला कितनी पुरानी है यह कहना कठिन है । कला में कहानियों को चित्रित किया गया है इससे अनुमान होता है कि इसका प्रारंभ लिखने पढ़ने की कला से भी पहले हो चुका होगा, लेकिन पुरातत्व वेत्ताओं का विश्वास है कि यह कला दसवी शताब्दी में लोकप्रिय हुयी। इस क्षेत्र पर हिन्दू, मुस्लिम, पुर्तगाली और अंग्रज़ी शासकों ने राज्य किया और सभी ने इसे प्रोत्साहित किया। सत्रहवें दशक से इसकी लोकप्रियता का एक नया युग प्रारंभ हुआ जब इनको बाज़ार में लाया गया।
वरली कलाकृतियाँ विवाह के समय विशेष रूप से बनायी जाती थीं। इन्हें शुभ माना जाता था और इसके बिना विवाह को अधूरा समझा जाता था। त्रिकोण आकृतियों में ढले आदमी और जानवर, रेखाओं में चित्रित हाथ पाँव तथा ज्यामिति की तरह बिन्दु और रेखाओं से बने इन चित्रों को महिलाएँ घर में मिट्टी की दीवारों पर बनाती थीं। इस कला में सीधी रेखा प्रयुक्त नहीं होती। बिन्दु से बिन्दु ही जोड़ कर रेखा खींची जाती है। इन्हीं के सहारे आदमी, प्राणी और पेड़-पौधों की सारी गतिविधियाँ प्रदर्शित की जाति है। विवाह, पुरूष, स्त्रीं, बच्चे, पेड़-पौधे, पशुपक्षी और खेत - यही विशेष रूप से इन कलाकृतियों के विषय होते है। गोबर-मिट्टी से लेपी हुई सतह पर चावल के आटे के पानी में पानी मिला कर बनाए गए घोल से रंगा जाता है।


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