भारतीय इतिहास के स्त्रोत - सामान्य अध्ययन-भूगोल, विज्ञान, इतिहास, कला और संस्कृति

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Sunday, October 5, 2014

भारतीय इतिहास के स्त्रोत

भारतीय इतिहास के स्रोतों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-साहित्यिक साक्ष्य,विदेशी यात्रियों का विवरण,पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य

साहित्यिक साक्ष्य

साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य।

धार्मिक साहित्य


प्राचीन काल से ही भारत के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें- वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुईं। 
वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।पुराणों और स्मृतियों को भी धार्मिक साहित्य के अंतर्गत रखा जा सकता है . रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों ने पुराणों का अध्ययन कर उनसे ऐतिहासिक तथ्यों को अलगाने की चेष्टा की है .
बौद्ध साहित्य
मूल बौद्ध साहित्य को त्रिपिटककहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने पिटकका शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं-
·          सुत्तपिटक- गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद द्वारा संगायित (संकलित) , बुद्ध के उपदेश
·          विनयपिटक- गौतम बुद्ध के शिष्य उपालि द्वारा संगायित , बौद्ध संघ के नियम  और
·          अभिधम्मपिटक- मोगलिपुत्त तिस्स द्वारा संगायित , बौद्ध दर्शन ।

जैन साहित्य

ऐतिहासिक  जानकारी की दृष्टि से जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे आगमकहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।

लौकिक साहित्य 

प्राचीन काल से ही भारत साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध रहा है. यद्यपि इतिहास लेखन की कोई विशिष्ट परंपरा यहाँ दिखाई नहीं देती तथापि साहित्यिक ग्रंथों का प्रयोग इतिहास निर्माण के लिए किया जाता रहा है . बाल्मीकि,वेदव्यास,पाणिनि,पतंजलि,कालिदास,शूद्रक,भरत मुनि,भास,भारवि जैसे कई साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से भारतीय साहित्यिक परंपरा को समृद्ध किया है .

विदेशी यात्रियों के विवरण 

प्राचीन काल से ही भारत का विदेशों के साथ सम्बन्ध रहा है . यूनान,रोम,चीन,तिब्बत और अरब और अन्य प्रदेशों के यात्रियों ने भारत का भ्रमण किया और अपनी रचनाओं में भारत के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किये , जिनका उपयोग हम इतिहास लेखन में करते हैं . 
यूनानी-रोमन लेखक- यूनानी लेखकों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-
·          सिकन्दर के पूर्व के यूनानी लेखक- टेसियस और हेरोडोटस यूनान और रोम के प्राचीन लेखकों में से हैं। टेसियस 'ईरानी राजवैद्य' था, उसने भारत के विषय में समस्त जानकारी ईरानी अधिकारियों से प्राप्त की थी। हेरोडोटस, जिसे 'इतिहास का पिता' कहा जाता है, ने 5वी. शताब्दी में ई.पू. में हिस्टोरिकानामक पुस्तक की रचना की थी, जिसमें भारत और फ़ारस के सम्बन्धों का वर्णन किया गया है।
·          सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखक- नियार्कस, आनेसिक्रिटस और अरिस्टोवुलास ये सभी लेखक सिकन्दर के समकालीन। इन लेखकों द्वारा जो भी विवरण तत्कालीन भारतीय इतिहास से जुड़ा है वह अपने में प्रमाणिक है।
·          सिकन्दर के बाद के लेखक- सिकन्दर के बाद के लेखकों में महत्त्वपूर्ण था मेगस्थनीज जो यूनानी राजा सेल्यूकस का राजदूत था। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में क़रीब 14 वर्षो तक समय व्यतीत किया। उसने इण्डिका नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें तत्कालीन मौर्यवंशीय समाज एवं संस्कृति का विवरण दिया था। डाइमेकस, सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत था जो बिन्दुसार के राजदरबार में काफ़ी दिनों तक रहा। डायोनिसियस मिस्र नरेश 'टॉलमी फिलाडेल्फस' के राजदूत के रूप में काफ़ी दिनों तक सम्राट अशोक के राज दरबार में रहा था।अन्य पुस्तकों में 'पेरीप्लस ऑफ़ द एरिथ्रियन सी', लगभग 150 ई. के आसपास टॉलमी का भूगोल, प्लिनी का 'नेचुरल हिस्टोरिका' (ई. की प्रथम सदी) महत्त्वपूर्ण है। पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सीग्रंथ जिसकी रचना 80 से 115 ई. के बीच हुई है, में भारतीय बन्दरगाहों एवं व्यापारिक वस्तुओं का विवरण मिलता है। प्लिनी के नेचुरल हिस्टोरिकासे भारतीय पशु, पेड़-पौधों एवं खनिज पदार्थो की जानकारी मिलती है।
चीनी लेखक - चीनी लेखकों के विवरण से भी भारतीय इतिहास पर प्रचुर प्रभाव पड़ता है। सभी चीनी लेखक यात्री बौद्ध मतानुयायी थे और वे इस धर्म के विषय में कुछ विषय जानकारी के लिए ही भारत आये थे। चीनी बौद्ध यात्रियों में से प्रमुख थे-फ़ाह्यान, ह्वेनसांग, इत्सिंग, मल्वानलिन, चाऊ-जू-कुआ आदि।मल्वानलिन ने हर्ष के पूर्व अभियान एवं 'चाऊ-जू-कुआ' ने चोलकालीन इतिहास पर प्रकाश डाला।
फाह्यान : फ़ाह्यान अथवा फ़ाहियान (अंग्रेज़ी:Faxian) का जन्म चीन के 'वु-वंग' नामक स्थान पर हुआ था। यह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने लगभग 399 ई. में अपने कुछ मित्रों 'हुई-चिंग', 'ताओंचेंग', 'हुई-मिंग', 'हुईवेई' के साथ भारत यात्रा प्रारम्भ की। फ़ाह्यान की भारत यात्रा का उदेश्य बौद्ध हस्तलिपियों एवं बौद्ध स्मृतियों को खोजना था। इसीलिए फ़ाह्यान ने उन्ही स्थानों के भ्रमण को महत्त्व दिया, जो बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थे।
          अपने यात्रा क्रम में वह मित्रों के साथ सर्वप्रथम 'रानशन' पहुंचा और यहां लगभग 4,000 बौद्ध भिक्षुओं का दर्शन किया। दुर्गम रास्तों से गुजरता हुआ फ़ाह्यान 'खोतान' पहुंचा। यहां उसे 14 बड़े मठों के विषय में जानकारी मिली। यहां के मठों में सबसे बड़ा मठ 'गोमती विहार' के नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें क़रीब 3,000 महायान धर्म के समर्थक रहते थे। गोमती विहार के नज़दीक ही एक दूसरा विहार था। यह विहार क़रीब 250 फुट ऊंचा था, जिसमें सोना, चांदी एवं अनेकों धातुओं का प्रयोग किया गया था। मार्ग में अनेक प्रकार का कष्ट सहता हुआ, अगले पड़ाव के रूप फ़ाह्यान 'पुष्कलावती' पहुंचा। जहां उसने हीनयान सम्प्रदाय के लोगों को देखा। ऐसा माना जाता है कि, यहां बोधिसत्व ने अपनी आंखें किसी और को दान की थीं। फ़ाह्यान ने यहां पर सोने एवं रजत से जड़ित स्तूप के होने की बात बताई है। पुष्पकलावती के बाद फ़ाह्यान तक्षशिला पहुंचा।चीनी स्रोतों का मानना है कि बोधिसत्व ने यहां पर अपने सिर को काट कर किसी और व्यक्ति को दान कर दिया था। इसलिए चीनी लोग तक्षशिला का शाब्दिक अर्थ 'कटा सिर' लगाते हैं। यहां पर भी बहुमूल्य धातुओं से निर्मित स्तूप होने की बात का फ़ाह्यान ने वर्णन किया है। तक्षशिला के बाद फ़ाह्यान 'पुरुषपुर' पहुंचा। यहां पर कनिष्क द्वारा निर्मित 400 फीट ऊंचे स्तूप को उसने अन्य स्तूपों में सर्वोत्कृष्ट बतलाया। फ़ाह्यान ने 'नगर देश' में बने एक स्तूप में बुद्ध के कपाल की हड्डी गड़े होने का वर्णन किया है। मथुरा पहुंचकर फ़ाह्यान ने यमुना नदी के किनारे बने 20 मठों के दर्शन किये। फ़ाह्यान ने मध्य देश की यात्रा की सर्वाधिक प्रशंसा की है। चूंकि वह प्रदेश ब्राह्मण धर्म का केन्द्र स्थल था इसलिए इसे 'ब्राह्मण देश' भी कहा गया है। यात्रा के अगले क्रम में फ़ाह्यान कान्यकुब्ज, साकेत और फिर श्रावस्ती पहुंचा। श्रावस्ती में भी स्तूप एवं मठ निर्मित मिले और यहां पर भी स्थित 'जेतवन' को फ़ाह्यान ने 'सुवर्ण उपवन' कहा है। इसके बाद फ़ाह्यान कपिलवस्तु, कुशीनगर और वैशाली से होता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचा। पाटलिपुत्र को फ़ाह्यान ने तत्कालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ नगर बताया है। यहां पर निर्मित मौर्य सम्राट अशोक के राजप्रसाद को देखकर फ़ाह्यान ने कहा, 'मानो राजप्रसाद देवताओं द्वारा निर्मित हो'। पाटलिपुत्र में ही फ़ाह्यान ने हीनयान एवं महायान से सम्बन्धित दो मठों को देखा तथा अशोक द्वारा निर्मित स्तूप एवं दो लाटों के दर्शन किये। 401 ई. से 410 ई. तक फ़ाह्यान भारत में रहा। इस बीच फ़ाह्यान ने 3 वर्ष पाटलिपुत्र में और 2 वर्ष ताम्रलिप्ति (आधुनिक बंगाल का मिदनापुर ज़िला) में बिताए फ़ाह्यान ने अपनी भारत यात्रा के बड़े रोचक विवरण लिखे हैं।
                                                 नालन्दा में फ़ाह्यान ने बुद्ध के शिष्य 'सारिपुत्र' की अस्थियों पर निर्मित स्तूप का उल्लेख किया, इसके बाद वह राजगृह, बोधगया एवं सारनाथ की यात्रा के बाद वापस पाटलिपुत्र आया, जहां कुछ समय बिताने के बाद स्वदेश लौट गया। इस दौरान फ़ाह्यान ने लगभग 6 वर्ष सफर में एवं 6 वर्ष अध्ययन में बिताया। पाटिलपुत्र में संस्कृत के अध्ययन हेतु उसने 3 वर्ष व्यतीत किये। फ़ाह्यान ने अपने समकाली नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय के नाम की चर्चा न कर उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति एवं कुशल प्रशासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। उसके अनुसार इस समय जनता सुखी थीं, कर का भार अल्प था, शारीरिक दण्ड एवं मृत्युदण्ड का प्रचलन नहीं था, अर्थदण्ड ही पर्याप्त होता था।
समाज का वर्णन -तत्कालीन समाज पर प्रकाश डालते हुए फ़ाह्यान ने कहा है कि, लोग अतिथि परायण होते थे। भोजन में लहसुन, प्याज, मदिरा, मांस, मछली का प्रयोग नहीं करते थे। फ़ाह्यान ने चाण्डाल जैसी अस्पृश्य जाति का भी उल्लेख किया है, जिनका एक तरह से सामाजिक बहिष्कार किया जाता था। वैश्य जाति की प्रशंसा फ़ाह्यान ने इसलिए की, क्योंकि इस जाति ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार एवं भिक्षुओं के विश्राम हेतु मठों के निर्माण में काफ़ी धन व्यय किया था।
आर्थिक दशा-गुप्त कालीन आर्थिक दशा पर प्रकाश डालते हुए फ़ाह्यान ने कहा है कि, इस समय साधारण क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग होता था। इस समय भारत का व्यापार उन्नत दशा में था। फ़ाह्यान ने इस समय बड़े-बड़े जहाज़ों को चलाने की भी बात कही है। उसके वर्णन के अनुसार उसने स्वयं स्वदेश वापस जाते समय एक बड़े जहाज़ में बैठ कर ताम्रलिप्ति बन्दरगाह से प्रस्थान किया था। फ़ाह्यान ने अपने समकालीन भारतीय सम्राट के विषय में बताया है कि, वे विद्धानों के संरक्षक थे। फ़ाह्यान ने मंजूश्री नाम के विद्धान का वर्णन भी किया है। धार्मिक स्थित के बारे में फ़ाह्यान ने लिखा है कि, इस समय अनेक प्रकार के धर्म एवं विचारधारायें प्रचलन में थीं। इनमें सर्वाधिक प्रकाश उसने बौद्ध धर्म पर डाला हे। फ़ाह्यान ने भारत में वैशाख की अष्टमी को एक महत्त्वपूर्ण उत्सव मनाये जाने की बात कही हैं। उसके अनुसार चार पहिये वाले रथ पर कई मूर्तियों को रख कर जुलूस निकाला जाता था। फ़ाह्यान के दिये गये विवरण से यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि, चन्द्रगुप्त द्वितीय का समय शान्ति एवं ऐश्वर्य का समय था।
ह्वेन त्सांग - ह्वेन सांग ,युवान चांग या युआन-त्यांग (संस्कृत: मोक्षदेव, अंग्रेज़ी:Xuanzang) एक प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु था जिसका जन्म चीन के लुओयंग स्थान पर सन् 602 ई. में हुआ था। इसके साथ ही वह एक दार्शनिक, घुमक्कड़ और अनुवादक भी था। उनका मूल नाम चेन आई था। ह्वेन त्सांग, जिन्हें मानद उपाधि सान-त्सांग से सुशोभित किया गया। उन्हें मू-चा ति-पो भी कहा जाता है। जिन्होंने बौद्ध धर्मग्रंथों का संस्कृत से चीनी अनुवाद किया और चीन में बौद्ध चेतना मत की स्थापना की। इसने ही भारत और चीन के बीच आरम्भिक तंग वंश काल में समन्वय किया था। ह्वेन त्सांग चार बच्चों में सबसे छोटा था। इसके प्रपितामह राजधानी के शाही महाविद्यालय में 'निरीक्षक' थे, और पितामह प्राध्यापक थे। इसके पिता एक कन्फ़्यूशस वादी थे, जिन्होंने अपनी राजसी नौकरी त्याग कर राजनीतिक उठापलट, जो कि चीन में कुछ समय बाद होने वाला था, से अपने को बचाया। ह्वेन त्सांग ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन शुरू किया, लेकिन शीघ्र ही मूल ग्रंथ में कई विसंगतियों एवं विरोधाभासों से परेशान हो गए। अपने चीनी गुरुओं से कोई समाधान न मिलने पर उन्होंने बौद्ध धर्म के स्रोत भारत में जाकर अध्ययन करने का फ़ैसला किया। यात्रा अनुमति पत्र हासिल न कर पाने के कारण उन्होंने चोरी-छिपे सू-चुआन छोड़ दिया।
भारत यात्रा- ह्वेन त्सांग ने हर्षवर्धन के शासन काल में भारत की यात्र की थी। उसने अपनी यात्रा 29 वर्ष की अवस्था में 629 ई. में प्रारम्भ की थी। यात्रा के दौरान ताशकन्द, समरकन्द होता हुआ ह्वेन त्सांग 630 ई. में चन्द्र की भूमि‘ (भारत) के गांधार प्रदेश पहुँचा। गांधार पहुंचने के बाद ह्नेनसांग ने कश्मीर, पंजाब, कपिलवस्तु, बनारस, गया एवं कुशीनगर की यात्रा की। कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के निमंत्रण पर वह उसके राज्य में लगभग आठ वर्ष (635-643 ई.) रहा। इसके पश्चात् 643 ई. में उसने स्वदेश जाने के लिए प्रस्थान किया। वह काशागर, यारकन्द, खोतान होता हुआ, 645 ई. में चीन पहुंचा। वह अपने साथ भारत से कोई 150 बुद्ध के अवशेषों के कण, सोने, चांदी, एवं सन्दल द्वारा बनी बुद्ध की मूर्तियाँ और 657 पुस्तकों की पाण्डुलिपियों को ले गया था।
भारत का वर्णन -ह्वेन त्सांग की भारत यात्रा का वृतांत हमें चीनी ग्रंथ सी यू की‘, वाटर्ज की पुस्तक ‘On Yuan Chwang's Travel In India ‘ एवं ह्मुली की पुस्तक 'Life of Huven Tsang' में मिलता है। ह्वेन त्सांग के विवरण से तत्कालीन भारत के समाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासकीय पक्ष पर प्रकाश पड़ता है। ह्वेन त्सांग ब्राह्मण जाति का सर्वाधिक पवित्र एवं सम्मानित जातिके रूप में उल्लेख करता है। क्षत्रियों की कर्तव्यपरायणता की प्रशंसा करता हुआ उसे राजा की जातिबताता है और वैश्यों का वह व्यापारी के रूप में उल्लेख करता है। ह्वेन त्सांग के विवरण के अनुसार उस समय मछुआरों, कलाई, जल्लाद, भंगी जैसी जातियां नगर सीमा के बाहर निवास करती थीं। नगर में भवनों, दीवारों का निर्माण ईटों एवं टाइलों से किया जाता था।
                      ह्वेनसांग ने तत्कालीन भारत को हर क्षेत्र में समृद्धिशाली बताया है। इस समय गाय का मांस खाने पर पूर्णतः प्रतिबन्ध था। ह्नेनसांग ने पाटलिपुत्र के पतन एवं उत्तर भार के नवीन नगर कन्नौज के उत्थान पर प्रकाश डाला है। उसके अनुसार कन्नौज में लगभग 100 संघाराम एवं 200 हिन्दू मन्दिर थे। ह्नेनसांग ने उस समय रेशम एवं सूत से निर्मित 'कौशेय' नामक वस्त्र का भी वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त उसने क्षौम, लिनन, कम्बल जैसे वस्त्र का भी वर्णन किया है। ह्नेनसांग के अनुसार इस लोख खेती का कार्य करते थे। ह्नेनसांग के अनुसार इस समय औद्योगिक क्षेत्र में व्यावसायिक श्रेणियों एवं निगमों की पकड़ मज़बूत थी। शूद्र लोग खेती का कार्य करते थे। ह्नेनसांग के अनुसार इस समय अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह एवं पर्दे की प्रथा का प्रचलन नहीं था जबकि सती प्रथा का प्रचलन था। शिक्षा पर प्रकाश डालते हुए ह्नेनसांग ने बताया कि शिक्षा धार्मिक थी, लिपि ब्राह्नी एवं भाषा संस्कृत थी जो विद्धानों की भाषा थी। इस समय शिक्षा ग्रहण करने की आयु 9 वर्ष से 30 वर्ष के बीच मानी जाती थी। उसका उल्लेख अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप करता है जिसे हर्ष ने 200 ग्रामों का अनुदान किया था। ह्वेन त्सांग कन्नौज की धर्मसभा का अध्यक्ष था, तथा उसने प्रयाग के छठें 'महोमोक्षपरिषद' में भाग लिया था। तत्कालीन भारत में ब्राह्मण धर्म (वैष्णव, शैव) बौद्ध धर्म के साथ साथ शाक्त सम्प्रदाय के प्रचलन का भी संकेत करता है। देवी दुर्गा को शिव की शक्ति मानते हुए बलि की प्रथा का भी प्रचलन था। ह्वेन त्सांग स्वयं बलि का शिकार होने से बाल बाल बचा था ।  दस्युओं द्वारा जैसे ही ह्वेन त्सांग स्वयं दुर्गा की बलि के लिए समर्पित किया जाने वाला था, भीषण तूफ़ान आने के कारण वह इससे त्राण पा सका।
                                       इसी काल में चौथी बौद्ध सम्मेलन हुआ, कुषाण राजा कनिष्क की देख रेख में। सन् 633 ई. में ह्वेन त्सांग ने कश्मीर से दक्षिण की ओर चिनाभुक्ति जिसे वर्तमान में फ़िरोज़पुर कहते हैं, को प्रस्थान किया। वहाँ भिक्षु विनीतप्रभा के साथ एक वर्ष तक अध्ययन किया। सन् 634 ई. में पूर्व में जालंधर पहुँचा। इससे पूर्व उसने कुल्लू घाटी में हीनयान के मठ भी भ्रमण किये। फिर वहाँ से दक्षिण में बैरत, मेरठ और मथुरा की यात्रा की।
                                   अपनी इतनी यात्रा के बाद ह्वेन त्सांग गंगा नदी के माध्यम से नौका द्वारा मथुरा पहुँचे और उसके बाद गंगा के पूर्वी इलाक़े में बौद्ध धर्म की पवित्र भूमि में 633 ई. में पहुँचे। फिर गंगा नदी पार करके दक्षिण में संकस्य (कपित्थ) पहुँचा, जहाँ कहते हैं, कि गौतम बुद्ध स्वर्ग से अवतरित हुए थे। यमुना के तीरे चलते-चलते ह्वेन त्सांग मथुरा पहुँचा। मथुरा में 2000 भिक्षु मिले और हिन्दू बहुल क्षेत्र होने के बाद भी दोनों ही बौद्ध शाखाएँ वहाँ थीं। उसने श्रुघ्न नदी तक यात्रा की और फिर पूर्ववत मतिपुर के लिये नदी पार की। यह सन् 635 ई. की बात है। वहाँ से उत्तरी भारत के महासम्राट हर्षवर्धन (606-647 ई.) की राजधानी 'कान्यकुब्ज', वर्तमान कन्नौज पहुँचा। यहाँ सन् 636 ई. में उसने सौ मठ और 10,000 भिक्षु देखें (महायान और हीनयान, दोनों ही)। वह सम्राट की बौद्ध धर्म की संरक्षण और पालन से अति प्रभावित हुआ। इसने क़रीब 10 वर्षो तक भारत में भ्रमण किया। उसने 6 वर्षो तक नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसकी भारत यात्रा का वृतान्त 'सी-यू-की' नामक ग्रंथ से जाना जाता है जिसने लगभग 138 देशों के यात्रा विवरण का ज़िक्र मिलता है। 'हूली' ह्वेन त्सांग का मित्र था जिसने ह्वेन त्सांग की जीवनी लिखी। इस जीवनी में उसने तत्कालीन भारत पर भी प्रकाश डाला। चीनी यात्रियों में सर्वाधिक महत्त्व ह्वेन त्सांग का ही है। उसे प्रिंस ऑफ पिलग्रिम्सअर्थात् 'यात्रियों का राजकुमार' कहा जाता है। भारत में ह्वेन त्सांग ने बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी पवित्र स्थलों का भ्रमण किया और उपमहाद्वीप के पूर्व एवं पश्चिम से लगे इलाक़ो की भी यात्रा की। उन्होंने अपना अधिकांश समय नालंदा मठ में बिताया, जो बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहाँ उन्होंने संस्कृत, बौद्ध दर्शन एवं भारतीय चिंतन में दक्षता हासिल की।
सम्मान -जब ह्वेन त्सांग भारत में थे, तो एक विद्वान के रूप में ह्वेन त्सांग की ख्याति इतनी फैली की उत्तर भारत के शासक शक्तिशाली राजा हर्षवर्धन ने भी उनसे मिलना एवं उन्हें सम्मानित करना चाहा। इस राजा के संरक्षण के कारण, 643 ई. में ह्वेन त्सांग की वापसी चीन यात्रा काफ़ी सुविधाजनक रही। उनकी ख्याति मुख्य रूप से बौद्ध सूत्रों के अनुवाद की व्यापकता एवं भिन्नता तथा मध्य एशिया और भारत की यात्रा के दस्तावेज़ों के कारण है, जो विस्तृत एवं सटीक आंकड़ों के कारण इतिहासकारों एवं पुरातत्त्वविदोम के लिए अमूल्य हैं।
                                     ह्वेनसांग ने दक्षिण के काञ्ची एवं चालुक्य राज्य की भी यात्रा की थी। पुलकेशिन द्वितीय की शक्ति की उसने प्रशंसा की है। हर्ष के प्रशासन एवं प्रजा कल्याण की भावना का वह प्रशंसक था। ह्नेनसांग ने अपराधी प्रवृति के लोगों की संख्या के उल्प होने की बात कही है। शारीरि दण्ड का प्रचलन कम था तथा सामाजिक बहिष्कार एवं अर्थ दण्ड के रूप में दण्ड दिया जाता था। ह्नेनसांग के अनुसार राजा वर्ष के अधिकांश समयों में निरीक्षण यात्रा पर रहता था और यात्रा के दौरान वह अस्थायी निर्माण कार्य करवा कर उसमें निवास करता था। हर्ष का समूचा दिन तीन भागों में विभाजित था-
Ø  प्रथम भाग (दिन का) राज्य के कार्यो में
Ø  शेष दो भाग (दिन का) धर्मार्थ कार्यों पर व्यतीत होता था।
ह्नेनसांग ने हर्ष की सैन्य व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए बताया कि उसकी सेना में क़रीब 50,000 पैदल सैनिक, लगभग एक लाख घुड़सवार एवं 60,000 हाथियों की संख्या थी। सेना का महत्त्वपूर्ण भाग रथ सेना होती थी।
इत्सिंग -इत्सिंग एक चीनी यात्री और बौद्ध भिक्षु था, जो 675 ई. के समय सुमात्रा होकर समुद्र के मार्ग से भारत आया था। इत्सिंग ने 'नालन्दा' एवं 'विक्रमशिला विश्वविद्यालय' तथा उस समय के भारत पर प्रकाश डाला है।इत्सिंग 10 वर्षों तक 'नालन्दा विश्वविद्यालय' में रहा था।
उसने वहाँ के प्रसिद्ध आचार्यों से संस्कृत तथा बौद्ध धर्म के ग्रन्थों को पढ़ा। 691 ई. में इत्सिंग ने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भारत तथा मलय द्वीपपुंज में प्रचलित बौद्ध धर्म का विवरण' लिखा।इस ग्रन्थ से हमें उस काल के भारत के राजनीतिक इतिहास के बारे में तो अधिक जानकारी नहीं मिलती, परन्तु यह ग्रन्थ बौद्ध धर्म और 'संस्कृत साहित्य' के इतिहास का अमूल्य स्रोत माना जाता है। :
अरबी लेखक : पूर्व मध्यकालीन भारत के समाज और संस्कृति के विषयों में हमें सर्वप्रथम अरब व्यापारियों एवं लेखकों से विवरण प्राप्त होता है। इन व्यापारियों और लेखकों में मुख्य हैं- अलबेरूनी, सुलेमान और अलमसूदी।
अलबेरूनी : अबु रेहान मुहम्मद बिन अहमद अल-बयरुनी या अल बेरुनी (973-1048) एक फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक था । अल बेरुनी की रचनाएँ अरबी भाषा में हैं पर उसे अपनी मातृभाषा फ़ारसी के अलावा कम से कम तीन और भाषाओं का ज्ञान था - सीरियाई, संस्कृत, यूनानी । वो भारत और श्रीलंका की यात्रा पर 1017-20 के मध्य आया था । ग़ज़नी के महमूद, जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किये, के कई अभियानों में वो सुल्तान के साथ था । अलबरुनी को भारतीय इतिहास का पहला जानकार कहा जाता था ।भारत में रहते हुए उसने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया और 1030 में तारीख़-अल-हिन्द (भारत के दिन) नामक क़िताब लिखी । उसकी मृत्यु ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान (उस समय इसे अफ़गानिस्तान नहीं कहा जाता था बल्कि फ़ारस का हिस्सा कहते थे) में हुई ।


पुरातात्विक स्त्रोत 

पुरातात्विक स्त्रोतों के अंतर्गत उत्खनन (खुदाई) में प्राप्त वस्तुएं आती हैं . इनमें अभिलेख , मुद्राएँ और प्राचीन खँडहर इत्यादि महत्वपूर्ण हैं . इसके अतिरिक्त जीवाश्मों के अध्ययन से किसी काल के वासियों के बारे में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है .जीवाश्मों का अध्ययन Palentology के अंतर्गत किया जाता है . 
अभिलेख-इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्त्व सामग्री में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के बोगजकोईनाम स्थान से क़रीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।
अशोक के शिलालेख -अपने यथार्थ रूप में अभिलेख हमें सर्वप्रथम अशोक के शासन काल में ही मिलतें हैं। एक अभिलेख, जो हैदराबाद में 'मास्की' नामक स्थान पर स्थित है, में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त 'गुर्जरा', मध्य प्रदेश, 'पानगुड्इया',मध्य प्रदेश से प्राप्त लेखों में भी अशोक का नाम मिलता है। अन्य अभिलेखों में उसको देवताओं का प्रिय प्रियदर्शीराजा कहा गया है। अशोक के अभिलेख मुख्यतः ब्राह्यी, खरोष्ठी तथा आरमाइक लिपियों में मिलतें हैं जिसमें अधिकांश ब्राह्यी में खुदे हुए हैं। इस लिपि को बांयी से दायीं ओर लिखा जाता है। पश्चिमोत्तर प्रान्त में प्रयुक्त होने वाली खरोष्ठी लिपिदायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान, में पाये गये अशोक के अभिलेखों में प्रयुक्त लिपि आरमाइक व यूनानी थी।
                                           अशोक के बाद अभिलेखों की परम्परा से जुड़े अन्य अभिलेख इस प्रकार हैं- खारवेल का खारवेल का हाथीगुम्फा, शक क्षत्रप प्रथम रुद्रदामान का जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन नरेश पुलुमावी का नासिक गुहालेख, हरिषेण द्वारा लिखित समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, मालव नरेश यशोवर्मन का मन्दसौर अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, प्रतिहार नरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख, स्कन्दगुप्त का भितरी तथा जूनागढ़ लेख, बंगाल के शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख इत्यादि। कुछ गैर सरकारी अभिलेख हैं जैसे यवन राजदूत हेलियाडोरस का बेसनगर, विदिशा से प्राप्त गरुड़ स्तम्भ लेख। इससे द्वितीय शताब्दी ई.पू. में भारत में भागवत धर्म के विकसित होने के साक्ष्य मिलते हैं। मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त वराह प्रतिमा पर हूण राजा तोरमाण के लेखों का विवरण है।
मुद्रायें
भारतीय इतिहास अध्ययन में मुद्राओं की अतीव महत्ता है। भारत की प्राचीनतम मुद्राएं छठी शती ई.पू. में प्रचलित हुई। इन पर लेख नहीं होते थे। कुछ प्रतीक जैसे पर्वत, वृक्ष, पक्षी, मानव, पुष्प, जयामितीय आकृति आदि अंकित रहते थे। इन्हें आहत मुद्रा (पंच मार्क्ड क्वायन्स) कहा जाता था। सर्वप्रथम भारत में शासन करने वाले यूनानी शासकों की मुद्राओं पर लेख एवं तिथियां उत्कीर्ण मिलती हैं। सर्वाधिक मुद्राएं उत्तर मौर्य काल में मिलती हैं जो प्रधानतः सीसे, पोटीन, ताबें, कांसे, चांदी और सोने की होती हैं। कुषाणों के समय में सर्वाधिक शुद्ध सुवर्ण मुद्राएं प्रचलन में थे, पर सर्वाधिक सुवर्ण मुद्राएं गुप्त काल में जारी की गयी। समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर 'यूप' पर 'अश्वमेध यज्ञ' और कुछ पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। कनिष्क की मुद्राओं से यह पता चलता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सातवाहन नरेश शातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है जिससे अनुमान लगाया जाता है कि उसने समुद्र विजय की थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय की व्याघ्रशैली की मुद्राओं से उसकी पश्चिमी भारत के शकों की विजय सूचित होती है।
स्मारक एवं भवन -इतिहास निर्माण में भारतीय स्थापत्यकारों, वास्तुकारों और चित्रकारों ने अपने हथियार, छेनी, कन्नी, और तूलिका के द्वारा विशेष योगदान दिया। इनके द्वारा निर्मित प्राचीन इमारतें, मंदिर मूर्तियों के अवशेषों से भारत की प्राचीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। खुदाई में मिले महत्त्वपूर्ण अवशेषों में हडप्पा सभ्यता, पाटलिपुत्र की खुदाई में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय लकड़ी के बने राजप्रसाद के ध्वंसावशेष, कौशाम्बी की खुदाई से महाराज उदयन के राजप्रसाद एवं 'घोषिताराम बिहार' के अवशेष अंतरजीखेड़ा में खुदाई से लोहे के प्रयोग के साक्ष्य, पांडिचेरी के अरिकमेडु में खुदाई से रोमन मुद्राओं, बर्तन आदि के अवशेषों से तत्कालीन इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है। उस समय मंदिर निर्माण की प्रचलित नागर शैलियों में नागर शैलीउत्तर भारत में प्रचलित थी जबकि द्रविड़ शैली दक्षिण भारत में प्रचलित थी। दक्षिणापथ में निर्मित वे मंदिर जिसमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का समावेश है उसे वेसर शैलीकहा गया है। 8वीं शताब्दी में जावा में निर्मित बोराबुदुर मंदिर से बौद्ध धर्म की पहचान शाखा के प्रचलित होने का प्रमाण मिलता है।
मूर्तियाँ- प्राचीन काल में मूर्तियों का निर्माण कुषाण काल से आरम्भ होता है। कुषाणें, गुप्त शासकों एवं उत्तर गुप्तकाल में निर्मित मूर्तियों के विकास में जनसामान्य की धार्मिक भावनाओं का विशेष योगदान रहा है। कुषाणकालीन मूर्तियों एवं गुप्तकालीन मूर्तियों में व्याप्त मूलभूत अंतर इस प्रकार है-
·          कुषाणकालीन मूर्तियां विदेशी प्रभाव से ओतप्रोत हैं वहीं पर गुप्तकालीन मूर्तियां स्वाभविकता से ओत-प्रोत हैं।

·          भरहुत, बोधगया, सांची और अमरावती में मिली मूर्तियां, मूर्तिकला में जनसामान्य के जीवन की अति सजीव झांकी प्रस्तुत करती है।

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