ब्राह्मण साहित्य - सामान्य अध्ययन-भूगोल, विज्ञान, इतिहास, कला और संस्कृति

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Sunday, October 5, 2014

ब्राह्मण साहित्य

वेद
वेद एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ज्ञानमहतज्ञान अर्थात पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञानहै। यह शब्द संस्कृत के विद्धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता 'कृष्ण द्वैपायन' थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण 'वेदव्यास' की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरुषेय अर्थात दैवकृत मानते हैं।
वेदों की कुल संख्या चार है-
ऐसी मान्यता है कि इनके मन्त्रों को परमेश्वर ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था । इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है । वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दर पीढी पिछले चार-पाँच हज़ार वर्षों से चली आ रही है ।
वेद के दो विभाग हैं- मन्त्र विभाग और ब्राह्मण विभाग
वेद के मन्त्र विभाग को संहिता भी कहते हैं। संहितापरक विवेचन को 'आरण्यक' एवं संहितापरक भाष्य को 'ब्राह्मणग्रन्थ' कहते हैं। वेदों के ब्राह्मणविभाग में' आरण्यक' और 'उपनिषद'- का भी समावेश है। ब्राह्मणविभाग में 'आरण्यक' और 'उपनिषद'- का भी समावेश है। ब्राह्मणग्रन्थों की संख्या 13 है, जैसे ऋग्वेद के 2, यजुर्वेद के 2, सामवेद के 8 और अथर्ववेद के 1
वैदिक उपनिषदों की संख्या 13 मानी जाती है : ईश,केन,कठ,प्रश्न,मुण्डक,माण्डूक्य,तैत्तिरीय,ऐतरेय,छान्दोग्य, बृहदारण्यक,कौषीतकि और श्वेताश्वतर।
·    ऋग्वेद :वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का निर्माण हुआ । ऋग्वेद अर्थात ऐसा ज्ञान, जो ऋचाओं में बद्ध हो।यह पद्यात्मक है । ऋग्वेद सनातन धर्म अथवा हिन्दू धर्म का स्रोत है । इसमें 1028 सूक्त हैं, जिनमें देवताओं की स्तुति की गयी है। इस ग्रंथ में देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को दुनिया के सभी इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की सबसे पहली रचना मानते हैं। ये दुनिया के सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है। ऋक् संहिता में 10 मंडल, बालखिल्य सहित 1028 सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को 'सूक्त' कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद के सूक्त विविध देवताओं की स्तुति करने वाले भाव भरे गीत हैं। इनमें भक्तिभाव की प्रधानता है। यद्यपि ऋग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु देवताओं की स्तुति करने वाले स्रोतों की प्रधानता है।
प्रमुख तथ्य
·          यह सबसे प्राचीनतम वेद माना जाता है।
·          ऋग्वेद के कई सूक्तों में विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुति करने वाले मंत्र हैं, यद्यपि ऋग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु देवताओं की स्तुति करने वाले स्त्रोतों की प्रधानता है।
·          ऋग्वेद में कुल दस मण्डल हैं और उनमें 1028 सूक्त हैं और कुल 10,580 ऋचाएँ हैं।
·          इसके दस मण्डलों में कुछ मण्डल छोटे हैं और कुछ मण्डल बड़े हैं।
·          प्रथम और अन्तिम मण्डल, दोनों ही समान रूप से बड़े हैं। उनमें सूक्तों की संख्या भी 191 है।ये दोनों मंडल कालक्रम की दृष्टि से परवर्ती हैं ।
·          दूसरे मण्डल से सातवें मण्डल तक का अंश ऋग्वेद का श्रेष्ठ भाग है, उसका हृदय है। इन छह मंडलों को Original Family Books भी कहा जाता है , क्योंकि इनमें से प्रत्येक मंडल की रचना अलग –अलग ऋषि परिवारों ने की है ।
·          आठवें मण्डल और प्रथम मण्डल के प्रारम्भिक पचास सूक्तों में समानता है।
·          ऋक् शब्द ऋग्वेद में एक बार तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में कदाचित ही प्रयुक्त हुआ है।
·          ऋग्वेद में यातुधानों को यज्ञों में बाधा डालने वाला तथा पवित्रात्माओं को कष्ट पहुँचाने वाला कहा गया है।
·          नवाँ मण्डल सोम से सम्बन्धित होने से पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। यह नवाँ मण्डल आठ मण्डलों में सम्मिलित सोम सम्बन्धी सूक्तों का संग्रह है, इसमें नवीन सूक्तों की रचना नहीं है।
·          दसवें मण्डल में प्रथम मण्डल की सूक्त संख्याओं को ही बनाये रखा गया है,पर इस मण्डल का विषय, कथा, भाषा आदि सभी बाद की रचनाएँ हैं।
·          ऋग्वेद के मन्त्रों या ऋचाओं की रचना किसी एक ऋषि ने एक निश्चित अवधि में नहीं की, अपितु विभिन्न काल में विभिन्न ऋषियों द्वारा ये रची और संकलित की गयीं।
·          ऋग्वेद के मन्त्र स्तुतिपरक होने से इनका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व अधिक है।
·          चारों वेदों में सर्वाधिक प्राचीन वेद ऋग्वेद से आर्यों की राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
·          ऋग्वेदिक सूक्तों के रचनाकारों में पुरुष और स्त्री दोनों हैं । पुरुष रचयिताओं में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज और वसिष्ठ तथा स्त्री रचयिताओं में लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, विश्वरा, सिकता, शचीपौलोमी और कक्षावृत्ति प्रमुख है। इनमें लोपामुद्रा क्षत्रिय वर्ण की थी,किन्तु उनकी शादी अगस्त्य ऋषि से हुयी थी। ऋग्वेद के दूसरे एवं सातवें मण्डल की ऋचायें सर्वाधिक प्राचीन हैं, जबकि पहला एवं दसवां मण्डल अन्त में जोड़ा गया है।
·          ऋग्वेद भारत की ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की प्राचीनतम रचना है। इसकी तिथि 1500 से 1000 ई.पू. मानी जाती है। सम्भवतः इसकी रचना सप्त-सैंधव प्रदेश में हुयी थी। ऋग्वेद और ईरानी ग्रन्थ 'जेंद अवेस्ता' में समानता पाई जाती है। ऋग्वेद के अधिकांश भाग में देवताओं की स्तुतिपरक ऋचाएं हैं, यद्यपि उनमें ठोस ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम मिलती है, फिर भी इसके कुछ मन्त्र ठोस ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध करते हैं। जैसे एक स्थान दाशराज्ञ युद्धजो भरत कबीले के राजा सुदास एवं पुरू कबीले के मध्य हुआ था, का वर्णन किया गया है। भरत जन के नेता सुदास के मुख्य पुरोहित वसिष्ठ थे, जब कि इनके विरोधी दस जनों (आर्य और अनार्य) के संघ के पुरोहित विश्वामित्र थे। दस जनों के संघ में- पांच जनो के अतिरिक्त- अलिन, पक्थ, भलनसु, शिव तथ विज्ञाषिन के राजा सम्मिलित थे। भरत जन का राजवंश त्रित्सुजन मालूम पड़ता है, जिसके प्रतिनिधि देवदास एवं सुदास थे। भरत जन के नेता सुदास ने रावी (परुष्णी) नदी के तट पर उस राजाओं के संघ को पराजित कर ऋग्वैदिक भारत के चक्रवर्ती शासक के पद पर अधिष्ठित हुए। ऋग्वेद में, यदु, द्रुह्यु, तुर्वश, पुरू और अनु पांच जनों का वर्णन मिलता है।
·          ऋग्वेद की पांच शाखायें हैं-शाकल,वाष्कल,आश्वलायन,शांखायन और मांडूकायन।
ऋग्वेद के मण्डल एवं उसके रचयिता :
ऋग्वेद के मण्डल
रचयिता
प्रथम मण्डल
अनेक ऋषि
द्वितीय मण्डल
गृत्समद
तृतीय मण्डल
विश्वामित्र
चतुर्थ मण्डल
वामदेव
पंचम मण्डल
अत्रि
षष्ठम् मण्डल
भारद्वाज
सप्तम मण्डल
वसिष्ठ
अष्ठम मण्डल
कण्व व अंगिरा
नवम् मण्डल(पावमान मण्डल)
अनेक ऋषि
बाद में जोड़ गये दशम मंडल के पुरुषसूक्त‘  में सर्वप्रथम शूद्रों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त नासदीय सूक्त (सृष्टि विषयक जानकारी, निर्गुण ब्रह्म की जानकारी), विवाह सूक्त (ऋषि दीर्घतपा द्वारा रचित), नदि सूक्त (वर्णित सबसे अन्तिम नदी गोमल), देवी सूक्त आदि का वर्णन इसी मण्डल में है। इसी सूक्त में दर्शन की अद्वैत धारा के प्रस्फुटन का भी आभास होता है। सोम का उल्लेख नवें मण्डल में है। 'मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं, माता अन्नी पीसनें वाली है। यह कथन इसी मण्डल में है। लोकप्रिय 'गायत्री मंत्र' (सावित्री) का उल्लेख भी ऋग्वेद के तीसरे  मण्डल में किया गया है। इस मण्डल के रचयिता विश्वामित्र  थे।
सामवेद : चार वेदों में सामवेद का नाम तीसरे क्रम में आता है। पर ऋग्वेद के एक मन्त्र में ऋग्वेद से भी पहले सामवेद का नाम आने से कुछ विद्वान वेदों को एक के बाद एक रचना न मानकर प्रत्येक का स्वतंत्र रचना मानते हैं। सामवेद में गेय छंदों की अधिकता है जिनका गान यज्ञों के समय होता था। 1824 मन्त्रों कें इस वेद में 75 मन्त्रों को छोड़कर शेष सब मन्त्र ऋग्वेद से ही संकलित हैं। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें सविता, अग्नि और इन्द्र देवताओं का प्राधान्य है। इसमें यज्ञ में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं, यह वेद मुख्यतः गन्धर्व लोगो के लिये होता है ।
·          सामशब्द का अर्थ है गान। सामवेद में संकलित मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता था।
·          सामवेद में कुल 1875 ऋचायें हैं। जिनमें 75 के अतिरिक्त शेष ऋग्वेद से ली गयी हैं।
·          इन ऋचाओं का गान सोमयज्ञ के समय उदगाताकरते थे।
·          सामदेव की तीन महत्त्वपूर्ण शाखायें हैं- कौथुमीय,जैमिनीय एवं राणायनीय।
·          देवता विषयक विवेचन की दृष्ठि से सामवेद का प्रमुख देवता सविताया सूर्यहै, इसमें मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं किन्तु इंद्र सोम का भी इसमें पर्याप्त वर्णन है।
·          भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में सामवेद का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसे भारतीय संगीत का मूल कहा जा सकता है।
·          सामवेद का प्रथम द्रष्टा वेदव्यास के शिष्य जैमिनि को माना जाता है।
·          वैदिक काल में बहुविध वाद्य यंत्रों का उल्लेख मिलता है जिनमें तंतु वाद्यों में कन्नड़ वीणा, कर्करी और वीणा, घन वाद्य यंत्र के अंतर्गत दुंदुभि, आडंबर,वनस्पति तथा सुषिर यंत्र के अंतर्गतः तुरभ, नादी तथा बंकुरा आदि यंत्र विशेष उल्लेखनीय हैं।
यजुर्वेद : यजुर्वेद से उत्तरवैदिक युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती हैं।इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य मन्त्र हैं, यह वेद मुख्यतः क्षत्रियो के लिये होता है । यजुर्वेद के एक मन्त्र में ब्रीहिधान्योंका वर्णन प्राप्त होता है । इसके अलावा, दिव्य वैद्य एवं कृषि विज्ञान का भी विषय समाहित है ।'यजुष' शब्द का अर्थ है- 'यज्ञ'। यर्जुवेद मूलतः कर्मकाण्ड ग्रन्थ है। इसकी रचना कुरुक्षेत्र में मानी जाती है। यजुर्वेद में आर्यो की धार्मिक एवं सामाजिक जीवन की झांकी मिलती है। इस ग्रन्थ से पता चलता है कि आर्य 'सप्त सैंधव' से आगे बढ़ गए थे और वे प्राकृतिक पूजा के प्रति उदासीन होने लगे थे। यर्जुवेद के मंत्रों का उच्चारण 'अध्वुर्य' नामक पुरोहित करता था। इस वेद में अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पन्न करने की विधियों का उल्लेख है। यह गद्य तथा पद्य दोनों में लिखा गया है। गद्य को 'यजुष' कहा गया है। यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय ईशावास्य उपनिषयद है, जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिक चिन्तन से है। उपनिषदों में यह लघु उपनिषद आदिम माना जाता है क्योंकि इसे छोड़कर कोई भी अन्य उपनिषद संहिता का भाग नहीं है।  यजुर्वेद के दो भाग हैं – (i)कृष्ण : वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है । (ii)शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है । इन दोनों शाखाओं में अंतर यह है कि शुक्ल यजुर्वेद पद्य (संहिताओं) को विवेचनात्मक सामग्री (ब्राह्मण) से अलग करता है, जबकि कृष्ण यजुर्वेद में दोनों ही उपस्थित हैं।
                                यजुर्वेद में वैदिक अनुष्ठान की प्रकृति पर विस्तृत चिंतन है और इसमें यज्ञ संपन्न कराने वाले प्राथमिक ब्राह्मण व आहुति देने के दौरान प्रयुक्त मंत्रों पर गीति पुस्तिका भी शामिल है। इस प्रकार यजुर्वेद यज्ञों के आधारभूत तत्त्वों से सर्वाधिक निकटता रखने वाला वेद है।यजुर्वेद संहिताएँ संभवतः अंतिम रचित संहिताएँ थीं, जो ई. पू. दूसरी सहस्त्राब्दी के अंत से लेकर पहली सहस्त्राब्दी की आरंभिक शताब्दियों के बीच की हैं।

कृष्ण यजुर्वेद-इसमें मंत्रों के साथ-साथ 'तन्त्रियोजक ब्राह्मणों' का भी सम्मिश्रण है। वास्तव में मंत्र तथा ब्राह्मण का एकत्र मिश्रण ही 'कृष्ण यजुः' के कृष्णत्त्व का कारण है तथा मंत्रों का विशुद्ध एवं अमिश्रित रूप ही 'शुक्त यजुष्' के शुक्लत्व का कारण है। इसकी मुख्य शाखायें हैं-तैत्तिरीय,
मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल ।तैत्तरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद की शाखा) को 'आपस्तम्ब संहिता' भी कहते हैं।महर्षि पंतजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पाँच वाजसनेय, तैत्तिरीय, कठ, कपिष्ठल और मैत्रायणी ही उपलब्ध हैं।
शुक्ल यजुर्वेद - इसे वाजसनेयी संहिता भी कहते हैं क्योंकि 'वाजसनि' के पुत्र याज्ञवल्क्य वाजसनेय इसके दृष्टा थे | शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखायें हैं – काण्व और माध्यन्दिन। इसमें 40 अध्याय हैं ।
यजुर्वेद की अन्य विशेषताएँ
·          यजुर्वेद गद्यात्मक हैं।
·          यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को यजुसकहा जाता है।
·          यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।
·          इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं।
·          यजुर्वेद में यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं।
·          यह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है।
·          यदि ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी तो यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई थी।
·          इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
·          वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है।
·          यजुर्वेद में यज्ञों और कर्मकाण्ड का प्रधान है।
·          अग्रलिखित उपनिषद् भी यजुर्वेद से सम्बद्ध हैं:-श्वेताश्वर,बृहदारण्यक,ईश,प्रश्न,मुण्डक और माण्डूक्य
अथर्ववेद : अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई थी। अथर्ववेद के दो पाठों, शौनक और पैप्पलद, में संचरित हुए लगभग सभी स्तोत्र ऋग्वेद के स्तोत्रों के छदों में रचित हैं। दोनो वेदों में इसके अतिरिक्त अन्य कोई समानता नहीं है। अथर्ववेद दैनिक जीवन से जुड़े तांत्रिक धार्मिक सरोकारों को व्यक्त करता है, इसका स्वर ऋग्वेद के उस अधिक पुरोहिती स्वर से भिन्न है, जो महान देवों को महिमामंडित करता है और सोम के प्रभाव में कवियों की उत्प्रेरित दृष्टि का वर्णन करता है।यज्ञों व देवों को अनदेखा करने के कारण वैदिक पुरोहित वर्ग इसे अन्य तीन वेदों के बराबर नहीं मानता था। इसे यह दर्जा बहुत बाद में मिला। इसकी भाषा ऋग्वेद की भाषा की तुलना में स्पष्टतः बाद की है और कई स्थानों पर ब्राह्मण ग्रंथों से मिलती है। अतः इसे लगभग 1000 ई.पू. का माना जा सकता है। इसकी रचना 'अथवर्ण' तथा 'आंगिरस' ऋषियों द्वारा की गयी है। इसीलिए अथर्ववेद को 'अथर्वांगिरस वेद' भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद को अन्य नामों से भी जाना जाता है-
·          गोपथ ब्राह्मण में इसे 'अथर्वांगिरस' वेद कहा गया है।
·          ब्रह्म विषय होने के कारण इसे 'ब्रह्मवेद' भी कहा गया है।
·          आयुर्वेद, चिकित्सा, औषधियों आदि के वर्णन होने के कारण 'भैषज्य वेद' भी कहा जाता है ।
·          'पृथ्वीसूक्त' इस वेद का अति महत्त्वपूर्ण सूक्त है। इस कारण इसे 'महीवेद' भी कहते हैं।
विषय -अथर्ववेद में कुल 20 काण्ड, 730 सूक्त एवं 5987 मंत्र हैं। इस वेद के महत्त्वपूर्ण विषय हैं- ब्रह्मज्ञान, औषधि प्रयोग, रोग निवारण, जन्त्र-तन्त्र, टोना-टोटका आदि।
                  अथर्ववेद में परीक्षित को कुरुओं का राजा कहा गया है तथा इसमें कुरू देश की समृद्वि का अच्छा विवरण मिलता है। इस वेद में आर्य एवं अनार्य विचार-धाराओं का समन्वय है। उत्तर वैदिक काल में इस वेद का विशेष महत्त्व है। ऋग्वेद के दार्शनिक विचारों का प्रौढ़रूप इसी वेद से प्राप्त हुआ है। शान्ति और पौष्टिक कर्मा का सम्पादन भी इसी वेद में मिलता है। अथर्ववेद में सर्वाधिक उल्लेखनीय विषय 'आयुर्विज्ञान' है। इसके अतिरिक्त 'जीवाणु विज्ञान' तथा 'औषधियों' आदि के विषय में जानकारी इसी वेद से होती है। भूमि सूक्त के द्वारा राष्ट्रीय भावना का सुदृढ़ प्रतिपादन सर्वप्रथम इसी वेद में हुआ है। इस वेद की दो अन्य शाखायें हैं- पिप्पलाद और शौनक।
:->पहले से लेकर सातवें कांड में विशिष्ट उद्देश्यों के लिए तंत्र-मंत्र संबंधी प्राथनाएं हैं- लंबे जीवन के लिए मंत्र, उपचार, श्राप, प्रेम मंत्र, समृद्धि के लिए प्रार्थना, ब्राह्मण के ज्ञाताओं से घनिष्ठता, वेद अध्ययन में सफलता, राजा बनने के लिए मंत्र और पाप का प्रायश्चित।
:->आठवें से बारहवें कांड में इसी तरह के पाठ हैं, लेकिन इसमें ब्रह्मांडीय सूक्त भी शामिल हैं, जो ऋग्वेद के सूक्तों को ही जारी रखते हैं और उपनिषदों के अधिक जटिल चिंतन की ओर ले जाते हैं। उदाहरण के लिए, उपनिषदों के लिए अत्यंत अर्थवान श्वास या प्राणवायु के महत्त्व की संकल्पना और सार्वभौम अस्तित्व से जुड़े आत्म पर चिंतन सबसे पहले अथर्ववेद में ही पाए गए थे।
:->13 से 20 तक कांड में ब्रह्मांडीय सिद्धांत (13 कांड), विवाह प्राथनाएं (कांड 14), अंतिम संस्कार के मंत्र (कांड 18) और अन्य जादुई व अनुष्ठानिक मंत्र हैं।
                   15 वां कांड रोचक है, जिसमें व्रत्य का महिमामंडन किया गया है, जो वेदपाठ न करने वाला एक अरूढ़िबद्ध आर्य समूह था, लेकिन इसके बावजूद सम्मानजनक आनुष्ठानिक व चिंतन परंपराएं रखता था। यही नहीं, व्रत्य स्वामिस्वरूप हैं और एक राजा का आतिथ्य ग्रहण करने की स्थति में उन्हें राजा को आशीर्वाद देने योग्य माना गया है। अथर्ववेद के इस भाग के साथ-साथ अन्य यजुर्वेद परिच्छेदों में वैदिक रचना के प्राथमिक संगठनात्मक सिद्धांतों और बाद के भारतीय अनुष्ठानों में से एक, अतिथि सत्कार के मह्त्व का वर्णन किया गया है।
अन्य सूक्त
अथर्ववेद का एक अन्य सूक्त मानव शरीर की रचना का वर्णन व प्रशंसा करता है। इस सूक्त व उपचार से जुड़े सामन्य अथर्ववेदी चिंतन के कारण शास्त्रीय भारतीय चिकित्सा प्रणाली, आयुर्वेद अपनी उत्पत्ति अथर्ववेद से मानता है। किंतु शास्त्रों द्वारा इस दावें को समर्थन नहीं मिलता और न तो आयुर्वेद के सिद्धांत वेदों में और न ही अथर्ववेद के तांत्रिक या आनुष्ठानिक उपचार आयुर्वेद में पाए जाते हैं। फिर भी चिकित्सकीय उपचारों को प्रणालीबद्ध करने व उन्हें वर्गीकृत किए जाने के काम की शुरुआत अथर्ववेद से मानी जा सकती है।
विशेषताएँ
इसमें ऋग्वेद और सामवेद से भी मन्त्र लिये गये हैं।
·          जादू से सम्बन्धित मन्त्र-तन्त्र, राक्षस, पिशाच, आदि भयानक शक्तियाँ अथर्ववेद के महत्त्वपूर्ण विषय हैं।
·          इसमें भूत-प्रेत, जादू-टोने आदि के मन्त्र हैं।
·          ऋग्वेद के उच्च कोटि के देवताओं को इस वेद में गौण स्थान प्राप्त हुआ है।
·          धर्म के इतिहास की दृष्टि से ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों का बड़ा ही मूल्य है।
·          अथर्ववेद से स्पष्ट है कि कालान्तर में आर्यों में प्रकृति की पूजा की उपेक्षा हो गयी थी और प्रेत-आत्माओं व तन्त्र-मन्त्र में विश्वास किया जाने लगा था।
ब्राह्मण ग्रंथ
यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई। यहाँ पर 'ब्रह्म' का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात् यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही 'ब्राह्मण ग्रंथ' कहे गये। ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं। इनमें उत्तरकालीन समाज तथा संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थो से हमें परीक्षित के बाद और बिम्बिसार के पूर्व की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में 'राज्याभिषेक' के नियम दिये गये हैं। प्राचीन इतिहास के साधन के रूप में 'वैदिक साहित्य' में 'ऋग्वेद' के बाद 'शतपथ ब्राह्मण' का स्थान है। शतपथ ब्राह्मण में गंधार, शल्य, कैकेय, कुरू, पांचाल, कोशल, विदेश आदि राजाओं के नाम का उल्लेख है।
वेद और उनसे संबंधित ब्राह्मण
वेद
संबंधित ब्राह्मण
ऋग्वेद
ऐतरेय ब्राह्मण, शांखायन या कौषीतकि ब्राह्मण
सामवेद  
पंचविंश या ताण्ड्य ब्राह्मण, षडविंश ब्राह्मण, सामविधान ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण, मंत्र ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण
शुक्ल यजुर्वेद
शतपथ ब्राह्मण
कृष्ण यजुर्वेद
तैत्तिरीय ब्राह्मण
अथर्ववेद
गोपथ ब्राह्मण

ब्राह्मण ग्रन्थ :पृष्ठभूमि- उत्तर वैदिककाल में, जब वैदिक संहिताएँ धीरे-धीरे दुर्बोध होती चली गईं, मन्त्रार्थ-ज्ञान केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों तक सीमित रह गया, उस समय यह आवश्यकता गहराई से अनुभव की गई कि वेद-मन्त्रों की विशद व्याख्या की जाय्। यही स्थिति वैदिक-यज्ञों के कर्मकाण्ड की भी थी। सुदीर्घकाल तक यागों का अनुष्ठान मौखिक ज्ञान के आधार पर ही होता रहा, लेकिन शनै:शनै यज्ञ-विधान जब जटिल और संश्लिष्ट प्रतीत होने लगा तथा स्थान-स्थान पर सन्देह और शंकाओं का प्रादुर्भाव होने लगा, तब इस सन्दर्भ में स्थायी आधार की आवश्यकता अनुभव हुई। ब्रह्मवादियों (यज्ञवेत्ताओं) के मध्य यज्ञीय विसंगतियों के निराकरण के लिए सम्पन्न चर्चा-गोष्ठियों, परिसंवादों तथा सघन विचार-विमर्श ने ब्राह्मण-ग्रन्थों के प्रणयन का मार्ग विशेष रूप से प्रशस्त किया। किसी भी युग के साहित्य के मूल में, तत्कालीन सांस्कृतिक विचारधारा, राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता, आस्थाओं, आदर्शों एवं मूल्यों की अभिव्यक्ति का दुर्निवार्य आग्रह स्वभावत: सत्रिहित रहता है। ब्राह्मण-साहित्य के अन्तर्दर्शन की पृष्ठभूमि में भी, निश्चित ही यह आकांक्षा निहित रही है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि वेद-मन्त्रों की सुगम व्याख्या करने, यज्ञीय विधि-विधान के सूक्ष्मातिसूक्ष्म पक्षों को निरूपित करने तथा समकालीन वैचारिक आन्दोलन को दिशा देने की भावना मुख्य रूप से ब्राह्मण ग्रन्थों के साक्षात्कार की पृष्ठभूमि में निहित रही है।

ब्राह्मण शब्द का अर्थ: मन्त्र-भाग से अतिरिक्त शेष वेद-भाग ब्राह्मण है, जैसा कि जैमिनि का कथन है-'शेषे ब्राह्मणशब्द'। माधवाचार्य तथा सायणाचार्य ने भी इसी लक्षण से सहमति व्यक्त की है। ग्रन्थ के अर्थ में 'ब्राह्मण' शब्द का प्राचीन प्रयोग तैत्तिरीय संहिता में है।पाणिनीय अष्टाध्यायी, निरुक्त तथा स्वयं ब्राह्मण ग्रन्थों में तो इस अर्थ में कई बार ये प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं।व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह 'ब्रह्म' शब्द से 'अण्' प्रत्यय लगकर निष्पन्न हुआ है। 'ब्रह्म' शब्द के दो अर्थ हैं- मन्त्र तथा यज्ञ।इस प्रकार ब्राह्मण वे ग्रन्थ विशेष हैं, जिनमें याज्ञिक दृष्टि से मन्त्रों की विनियोगात्मिका व्याख्या की गई है।जिन मनीषियों ने ब्राह्मणों का मन्त्रवत् प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया है, वे भी इन्हें वेद-व्याख्यान रूप मानते हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थ :स्वरूप औरप्रवचनकर्ता -ब्राह्मण-ग्रन्थों का वर्तमान स्वरूप प्रवचनात्मक और व्याख्यात्मक है। विधियों और उनके हेतु प्रभृति का निरूपण प्रवचनात्मक अंशों में है तथा विनियुक्त मन्त्रों के औचित्य का प्रदर्शन व्याख्यात्मक ढ़ग से है। दीर्घकाल तक मौखिक परम्परा से प्रचलित यज्ञीय कर्मकाण्ड का संकलन तो इनमें है ही, ब्रह्मवादियों के मध्य विद्यमान वाद-विवाद के अंशों की झलक भी यत्र-तत्र मिल जाती है। आधुनिक युग में, स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनके आर्य समाज में दीक्षित विद्वानों ने, ब्राह्मण-ग्रन्थों को वेद न मानकर वेदव्याख्यान ग्रन्थ भर माना है। इन विचारकों की दृष्टि में, पशु-हिंसा और कहीं-कहीं यज्ञगत अश्लील कृत्यों का उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों को अपौरुषेय वेद की श्रेणी में सम्मिलित करने में बाधक है। इस विवाद में उलझे बिना भी, यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि मन्त्र-संहिताओं की तुलना में ये वेद नहीं, तो 'वेदकल्प' तो हैं ही। ब्राह्मण-ग्रन्थों को श्रुतिस्वरूप स्वीकार करने वाले मनीषियों ने संहितावत् इन्हें भी अपौरुषेय ही माना है। उनकी मान्यता है कि इनका भी साक्षात्कार किया गया। जिन व्यक्तियों के नाम इनसे सम्बद्ध हैं, वे इनके रचयिता न होकर प्रवचनकर्ता ऋषि अथवा आचार्य हैं, जिन्होंने इन्हें संप्रेषित किया। भिन्न-भिन्न ब्राह्मण-ग्रन्थों के प्रवक्ता भी पृथक्-पृथक् हैं, जिनका परिचय उन ब्राह्मण ग्रन्थों के विशिष्ट विवरण के साथ प्रदेय है। यों संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि प्रवचनकर्ताओं में से कुछ ॠषि श्रेणी के हैं और अन्य आचार्य-परम्परा के। शतपथ के प्रवचनकर्ता याज्ञवल्क्य ॠषि हैं तो ऐतरेय ब्राह्मण के प्रवक्ता महिदास आचार्य माने जाते हैं।
प्रतिपाद्य विषय-ब्राह्मणग्रन्थों का मुख्य विषय यज्ञ का सर्वांगपूर्ण निरूपण है। इस यज्ञ-मीमांसा के दो प्रमुख भाग हैं- विधि तथा अर्थवाद। 'विधि' से अभिप्राय है यज्ञानुष्ठान कब, कहाँ और किन अधिकारियों के द्वारा होना चाहिए। ‘अर्थवाद’ के अंतर्गत विधियों के पीछे के तर्क को समझाया गया है ।
आरण्यक
ब्राह्मण ग्रन्थ के जो भाग अरण्य(forest) में पठनीय हैं, उन्हें 'आरण्यक' कहा गया या यों कहें कि वेद का वह भाग, जिसमें यज्ञानुष्ठान-पद्धति, याज्ञिक मन्त्र, पदार्थ एवं फलादि में आध्यात्मिकता का संकेत दिया गया, वे 'आरण्यक' हैं। जो मनुष्य को आध्यात्मिक बोध की ओर झुका कर सांसारिक बंधनों से ऊपर उठते हैं। वानप्रस्थाश्रम में संसार-त्याग के उपरांत अरण्य में अध्ययन होने के कारण भी इन्हें 'आरण्यक' कहा गया। आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात् वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थे । आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी आरण्यक तथा तलवकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या मी महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरू, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।
वेद एवं संबधित आरयण्क
वेद
सम्बन्धित आरण्यक
ऋग्वेद
ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक या कौषीतकि आरण्यक
सामवेद  
जैमनीयोपनिषद या तलवकार आरण्यक
यजुर्वेद  
बृहदारण्यक, मैत्रायणी, तैत्तिरीयारण्यक
अथर्ववेद
कोई आरण्यक नहीं

आरण्यकसाहित्य :पृष्ठभूमि

स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म के प्रति आकर्षण स्वभावतः उत्पन्न हो जाता है। श्रौतयज्ञों के सन्दर्भ में भी, जनमानस में, विशेष रूप से प्रबृद्ध वर्ग में, इसी प्रकार का आकर्षण शनैःशनैः उत्तरोत्तर अभिवृद्ध हुआ। यज्ञ के द्रव्यात्मक स्वरूप के बहुविध स्वरूपविस्तार में, जब उसका वास्तविक मर्म ओझल होने लगा, तो यह आवश्यकता गहराई से अनुभव की गई कि श्रौतयज्ञों की आध्यात्मिक व्याख्या की जाए। ब्राह्मण ग्रन्थों के उत्तरार्द्ध में, इसी दृष्टिकोण को प्रधानता प्राप्त हुई और उसमें वैदिक यज्ञों के अन्तर्तम में निहित गम्भीर अर्थवत्ता, वास्तविक मर्म और आध्यात्मिक रहस्यों के सन्धान के लिए जिस चिन्तन को आकार मिला, उसी का नामकरण आरण्यकसाहित्य के रूप में हुआ। आरण्यक ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थों एवं उपनिषदों के मध्य की कड़ी है। उपनिषदों में जिन आध्यात्मिक तत्त्वों को हम अत्युच्च शिखर पर आरूढ़ देखते हैं, उनकी पृष्ठभूमि आरण्यकों में ही निहित है। वेदोक्त सामाजिक व्यवस्था में, आश्रमप्रणाली का विशेष महत्त्व है। ब्राह्मणग्रन्थोक्त श्रौतयज्ञों के अनुष्ठान के अधिकारी गृहस्थाश्रमी माने गए हैं। इसके पश्चात् वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट व्यक्तियों के लिए, वैदिक वाङ्मय में, आरण्यकसाहित्य विशेष उपादेय समझा गया है। पचास वर्ष से अधिक अवस्था वाले ऐसे व्यक्तियों में जो श्रौतयज्ञों के स्थूल द्रव्यात्मक स्वरूप से सुपरिचित थे, अब इस स्वरूप के वास्तविक मर्म की जिज्ञासा स्वभावतः अधिक थी। इन्हीं की बौद्धिक जिज्ञासाओं के शमन के लिए आरण्यकसाहित्य का प्रणयन हुआ।
                             आरण्यकग्रन्थ ब्राह्मणग्रन्थों की ही शृंखला में, वस्तुतः, उनके उत्तरार्द्ध भाग में संकलित हैं। कर्मकाण्ड के साथ दोनों का ही सम्बन्ध है, इसलिए ये एक ही परम्परा से अनुस्यूत हैं। राजा जनक के द्वारा सर्वश्रेष्ठ सत्त्वेत्ता को 100 गाय देने की आख्यायिका शतपथ ब्राह्मण के साथ ही बृहदारण्यक में भी उपलब्ध होती है। बृहदारण्यक में केवल इतनी विशिष्टता है कि उसमें याज्ञवल्क्य और तत्कालीन अन्य तत्वचिन्तकों के मध्य हुआ दार्शनिक तत्वों पर विशद विचारविमर्श भी सम्मिलित है। इससे स्पष्ट है कि आरण्यक भाग ब्राह्मणग्रन्थों पर निर्भर है। इस सन्दर्भ में, इतना और ज्ञातव्य है कि आरण्यकग्रन्थ ब्राह्मणग्रन्थों के विशद तथा दार्शनिक स्वरूप के परिचायक है। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार ब्राह्मणग्रन्थों में उन कर्मकाण्डों का विवेचन है, जिनका विधान गृहस्थ के लिए था, किन्तु वृद्धावस्था में जब वह वनों का आश्रय लेता है तो, कर्मकाण्ड के स्थान पर किसी अन्य वस्तु की उसे आवश्यकता होती थी और आरण्यक उसी विषय की पूर्ति करते हैं।
आरण्यकों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय भी याज्ञिक कर्मकाण्ड के दार्शनिक पक्ष का उदघाटन है। दुर्गाचार्य ने निरुक्तभाष्य में 'ऐतरेयके रहस्यब्राह्मणे' कहकर आरण्यकों के लिए 'रहस्यब्राह्मण' नाम का उल्लेख किया है। गोपथ ब्राह्मण में भी 'रहस्य' शब्द का व्यवहार इस सन्दर्भ में दिखलाई देता है।
आरण्यक :मुख्य प्रतिपाद्यविषय
आरण्यक यज्ञ के गूढ़ रहस्य का प्रतिपादन करते हैं। 'रहस्य' शब्द से अभिहित की जाने वाली ब्रह्मविद्या की भी इसमें सत्ता है। आरण्यकों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्राणविद्या तथा प्रतीकापासना है। वे प्राणविद्या को अपनी अनोखी सूझ नहीं बतलाते, प्रत्युत ऋग्वेद के मन्त्रों को अपनी पुष्टि में उदधृत करते हैं, जिनमें प्राणविद्या की दीर्घकालीन परम्परा का इतिहास मिलता है।उपनिषदों के समान आरण्यकग्रन्थ भी एक ही मूलसत्ता को मानते हैं, जिसका विकास इस सृष्टि के रूप में हुआ है।
                  तैत्तिरीयआरण्यक में काल का निदर्शन बहुत सुन्दरता से किया गया है। काल निरन्तर प्रवाहमान है। अखण्ड संवत्सर के रूप में हम इसी पारमार्थिक काल के दर्शन करते हैं। व्यावहारिक काल अनेक तथा अनित्य है। व्यवहार की दृष्टि से उसके अनेक भाग मुहूर्त्त, दिन, रात, पक्ष, मास इत्यादि रूपों में किए जाने पर भी वस्तुतः वह एकरूप अथवा एकाकार ही रहता है। इस सन्दर्भ में नदी का दृष्तान्त दिया गया है, जो अक्षय्य स्रोत से प्रवाहित होती है, जिसे नाना सहायक नदियाँ आकर पुष्ट बनाती हैं, तथा जो विस्तीर्ण होकर भी नहीं सूखती हैं।
                              प्राणविद्या के महत्त्व का निरूपण आरण्यकों में विशेष रूप से है। ऐतेरेयआरण्यक का यह विशिष्ट प्रतिपाद्य है। तदनुसार प्राण इस विश्व का धारक है, प्राण की शक्ति से जैसे यह आकाश अपने स्थान पर स्थित है, उसी प्रकार सर्वोच्च प्राणी से लेकर चींटी तक समस्त प्राणी इसी प्राण के द्वारा प्रतिष्ठित हैं
अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का ज्ञान भी आरण्यकों से होता है। तदनुसार यज्ञोपवीत का सर्वप्रथम उल्लेख तैत्तिरीय आरण्यक में है। वहाँ कहा गया है कि यज्ञोपवीतधारण करके जो व्यक्ति यज्ञानुष्ठान करता है, उसका यज्ञ भलीभाँति स्वीकार किया जाता हैऐसा यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति जो कुछ भी पढ़ता है, वह यज्ञ ही है। 'श्रमण' शब्द का प्रयोग तैत्तिरीय आरण्यक में तपस्वी के अर्थ में हुआ है। कालान्तर से, बौद्ध काल में, यह शब्द बौद्धभिक्षुओं का ज्ञापक बन गया। इसी आरण्यक में एक सहस्र धुरों वाले, बहुसंख्यक चक्रों वाले तथा सहस्र अश्वों वाले एक विलक्षण रथ का वर्णन है। काण्वशाखीय बृहदारण्यक में सन्यास का विधान स्पष्ट शब्दों में है। कहा गया है कि आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही कोई मुनि होता है। इसी ब्रह्मलोक की इच्छा से संन्यासी संन्यास धारण करते हैं।

आरण्यकों के प्रवचनकर्ता

अधिकांश आरण्यक ब्राह्मणग्रन्थों के अन्तिम भाग हैं, इसलिए उन ब्राह्मणों के प्रवचनकर्ता ही, कतिपय अपवादों को छोड़कर, आरण्यकों के प्रवचनकर्ता हैं। उदाहरण के लिए ऐतरेय आरण्यक परम्परा के अनुसार, ऐतरेयब्राह्मण का अन्तिम भाग है, इसलिए ऐतरेयब्राह्मण के प्रवक्ता महिदास ऐतरेय को ही ऐतरेयआरण्यक (तृतीय आरण्यक तक) का भी प्रवचनकर्ता माना जाता है। इस प्रकार का उल्लेख भी ऐतरेयआरण्यक में है–'एतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेयः'। यद्यपि प्रो. कीथ इस उल्लेख को ही आधार मानकर महिदास को ऐतरेयारण्यक की रचना का श्रेय नहीं देते, किन्तु अधिकांश विद्वान उनसे असहमत हैं। इसलिए यह निश्चित है कि ऐतरेय आरण्यक के तृतीय आरण्यकान्त भाग के प्रवचनकर्ता महिदास ऐतरेय ही हैं। इनका विशद परिचय ऐतरेयब्राह्मण के अन्तर्गत दिया जा चुका है। ऐतरेय आरण्यक के अन्तर्गत चतुर्थारण्यक के प्रवचनकर्ता आश्वलायन तथा पञ्चम के शौनक माने जाते हैं। ऐतरेयारण्यक के भाष्य में सायण की भी यही धारणा है–'अतएव पञ्चमे शौनकेनोदाहताः। ताश्च पञ्चमे शौनकेन शाखान्तरमाश्रित्य पठिताः।'
शांखायनआरण्यक के द्रष्टा का नाम गुणाख्य शाङ्खायन है। इनके गुरु का नाम था कहोल कौषीतकि, जैसा कि इस आरण्यक के 15वें अध्याय में सुस्पष्ट उल्लेख है–'नमो ब्रह्मणे नम आचार्येभ्यो गुणाख्याच्छाङ्खायनादस्माभिरधीतं गुणाख्यः शाङ्खायनः कहोलात्कौषीतकेः।' बृहदारण्यक क प्रवचनकर्ता, परम्परा से महर्षि याज्ञवल्क्य माने जाते हैं, क्योंकि वही सम्पूर्ण शतपथब्राह्मण के प्रवक्ता हैं और बृहदारण्यक शतपथान्तर्गत ही है। सायणाचार्य के अनुसार तैत्तिरीयआरण्यक के रूप में प्रख्यात कृष्णयजुर्वेदीय आरण्यक के दृष्टा ऋषि कठ हैंइस प्रकार इसे काठकआरण्यक के नाम से अभिहित किया जाना चाहिए।मैत्रायणीयआरण्यक ही मैत्रायणीयउपनिषद् के रूप में विख्यात है। जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण, सामवेद के अन्तर्गत् 'तलवकारआरण्यक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अन्त में कश्यप से गुप्त लौहित्य तक ऋषिनामों की सुदीर्घ शृंखला दी गई है।
आरण्यकों का देशकाल-आरण्यकों का देशकाल वही है, जो ब्राह्मणग्रन्थों का है। तैत्तिरीयारण्यक में गंगायमुना का तटवर्ती मध्यदेश अत्यन्त पवित्र तथा मुनियों का निवास बतलाया गया है।इसी आरण्यक में आगे कुरुक्षेत्र तथा खाण्डवन का वर्णन है, जिससे ज्ञात होता है कि इसका सम्बन्ध कुरुपाञ्चाल जनपदों से रहा है। शांखायन आरण्यक में उशीनर, मत्स्य, कुरुपांचाल और काशी तथा विदेह जनपदों का वर्णन है।
आरण्यकों की भाषा एवं शैली
आरण्यकों की भाषा सामान्यतः ब्राह्मणों के सदृश ही हैं ऐतरेयआरण्यक में, अनेक स्थलों पर ऐतरेयब्राह्मण के वाक्य भी ज्यों के त्यों उदधृत हैं। प्रायः यह वैदिकी और लौकिकसंस्कृत के मध्य की भाषा है। जैमिनीय शाखा के तलवकारआरण्यक की भाषा में अन्य आरण्यकों की अपेक्षा, अधिक प्राचीन रूप सुरक्षित है। शैली में वर्णनात्मकता अधिक है। मन्त्रों के उद्धरणपूर्वक अपने प्रतिपाद्य का निरूपण करने की शैली आरण्यकग्रन्थों में प्रायः पाई जाती है। आरण्यकों के उन भागों में, जो आज उपनिषद के रूप में प्रतिष्ठित हैं, संवादमूलक संप्रश्नशैली दिखलाई देती है।
वेद और उनके आरण्यक
वेद
संबंधित आरण्यक
ऋग्वेद
ऐतरेय और शांखायन
सामवेद
तलवकारआरण्यक(जैमिनीयोपनिषद)।
शुक्लयजुर्वेद
बृहदारण्यक
कृष्णयजुर्वेद (तैत्तिरीय और काठक शाखा)
तैत्तिरीयारण्यक
कृष्णयजुर्वेद (मैत्रायणी शाखा)
मैत्रायणीयारण्यक
अथर्ववेद
कोई आरण्यक प्राप्त नहीं

उपनिषद
वैदिक उपनिषदों का रचनाकाल 1000 से 600 ई.पू. के बीच का माना जाता है । यद्यपि परंपरा से उपनिषदों की संख्या 108 मानी जाती है , लेकिन मूल वैदिक उपनिषदों की संख्या 13 है । इन्हें  वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषद भारत के अनेक दार्शनिकों, जिन्हें ऋषि या मुनि कहा गया है, के अनेक वर्षों के गम्भीर चिंतन-मनन का परिणाम है। उपनिषदों को आधार मानकर और इनके दर्शन को अपनी भाषा में रूपांतरित कर विश्व के अनेक धर्मों और विचारधाराओं का जन्म हुआ। प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकि, मुण्डक, प्रश्न, मैत्राणीय आदि। आदि शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणिक माना गया है -ईश, केन, माण्डूक्य, मुण्डक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद।
                 ब्राह्मणों की रचना ब्राह्मण पुरोहितों ने की थी, लेकिन उपनिषदों की दार्शनिक परिकल्पनाओं के सृजन में क्षत्रियों का भी महत्त्वपूर्ण भाग था। उपनिषद उस काल के द्योतक हैं जब विभिन्न वर्णों का उदय हो रहा था और क़बीलों को संगठित करके राज्यों का निर्माण किया जा रहा था। राज्यों के निर्माण में क्षत्रियों ने प्रमुख भूमिका अदा की थी, हालांकि उन्हें इस काम में ब्राह्मणों का भी समर्थन प्राप्त था। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार उपनिषद शब्द की व्युत्पत्ति उप (निकट), नि (नीचे), और षद (बैठो) से है। इस संसार के बारे में सत्य को जानने के लिए शिष्यों के दल अपने गुरु के निकट बैठते थे। उपनिषदों का दर्शन वेदान्त भी कहलाता है, जिसका अर्थ है वेदों का अन्त, उनकी परिपूर्ति। इनमें मुख्यत: ज्ञान से सम्बन्धित समस्याओं  पर विचार किया गया है।
                              इन ग्रन्थों में परमतत्व के लिए सामान्य रूप से जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह है ब्रह्मन्। यद्यपि ऐसा माना जाता है कि यहअथवा वहजैसी ऐहिक अभिव्यंजनाओं वाली शब्दावली में यह वर्णनातीत है और इसीलिए इसे बहुधा अनिर्वचनीय कहा है, तथापि किसी भांति इसका तादात्म्य आत्मा अथवा स्व से स्थापित किया जाता है। उपनिषदों में इसके लिए आत्मन् शब्द का प्रयोग किया गया है। अत: औपनिषदिक आदर्शवाद को, संक्षेप में, ब्रह्मन् से आत्मन् का समीकरण कहा जाता है। औपनिषदिक आदर्शवादियों ने इस आत्मन् को कभी चेतना-पुंज मात्र’ (विज्ञान-घन) और कभी परम चेतना’ (चित्) के रूप में स्वीकार किया है। इसे आनंद और सत् के रूप में भी स्वीकार किया गया है।
वेद एवं सम्बंधित उपनिषद
वेद
सम्बन्धित उपनिषद
ऋग्वेद
ऐतरेयोपनिषद
सामवेद  
वाष्कल उपनिषद, छान्दोग्य उपनिषद, केनोपनिषद
यजुर्वेद
बृहदारण्यकोपनिषद
शुक्ल यजुर्वेद
ईशावास्योपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद
तैत्तिरीयोपनिषद, कठोपनिषद, श्वेताश्वतरोपनिषद, मैत्रायणी उपनिषद
अथर्ववेद
माण्डूक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद, मुण्डकोपनिषद

परिभाषा
·          उपनिषद शब्द 'उप' और 'ति' उपसर्ग तथा 'सद' धातु के संयोग से बना है। 'सद' धातु का प्रयोग 'गति',अर्थात गमन,ज्ञान और प्राप्त के सन्दर्भ में होता है। इसका अर्थ यह है कि जिस विद्या से परब्रह्म, अर्थात ईश्वर का सामीप्य प्राप्त हो, उसके साथ तादात्म्य स्थापित हो,वह विद्या 'उपनिषद' कहलाती है।
·          उपनिषद में 'सद' धातु के तीन अर्थ और भी हैं - विनाश, गति, अर्थात ज्ञान -प्राप्ति और शिथिल करना । इस प्रकार उपनिषद का अर्थ हुआ-'जो ज्ञान पाप का नाश करे, सच्चा ज्ञान प्राप्त कराये, आत्मा के रहस्य को समझाये तथा अज्ञान को शिथिल करे, वह उपनिषद है।'
·          अष्टाध्यायी में उपनिषद शब्द को परोक्ष या रहस्य के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।
·          कौटिल्य के अर्थशास्त्र में युद्ध के गुप्त संकेतों की चर्चा में 'औपनिषद' शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे यह भाव प्रकट होता है कि उपनिषद का तात्पर्य रहस्यमय ज्ञान से है।
·          अमरकोष उपनिषद के विषय में कहा गया है-उपनिषद शब्द धर्म के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए प्रयुक्त होता है।
भौगोलिक परिस्थितियां
सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं या ॠषियों के नाम और खगोलीय योगों के विवरण आदि प्राप्त होते हैं। उनके द्वारा उपनिषदों के रचनाकाल की सम्भावना अभिव्यक्त की जाती है, परन्तु इनसे रचनात्मक का सटीक निरूपण नहीं हो पाता; क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियों में जिन नदियों आदि के नाम गिनाये जाते हैं, उनके उद्भव का काल ही निश्चित्त नहीं है। इसी प्रकार राजाओं और ॠषियों के एक-जैसे कितने ही नाम बार-बार ग्रन्थों में प्रयोग किये जाते हैं। वे कब और किस युग में हुए, इसका सही आकलन ठीक प्रकार से नहीं हो पाता। जहां तक खगोलीय योगों के वर्णन का प्रश्न है, उसे भी कुछ सीमा तक ही सुनिश्चित माना जा सकता है।
उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय
उपनिषदों के रचयिता ॠषि-मुनियों ने अपनी अनुभुतियों के सत्य से जन-कल्याण की भावना को सर्वोपरि महत्त्व दिया है। उनका रचना-कौशल अत्यन्त सहज और सरल है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि इन ॠषियों ने कैसे इतने गूढ़ विषय को, इसके विविधापूर्ण तथ्यों को, अत्यन्त थोड़े शब्दों में तथा एक अत्यन्त सहज और सशक्त भाषा में अभिव्यक्त किया है। भारतीय दर्शन की ऐसी कोई धारा नहीं है, जिसका सार तत्त्व इन उपनिषदों में विद्यमान न हो। सत्य की खोज अथवा ब्रह्म की पहचान इन उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। जन्म और मृत्यु से पहले और बाद में हम कहां थे और कहां जायेंगे, इस सम्पूर्ण सृष्टि का नियन्ता कौन है, यह चराचर जगत किसकी इच्छा से परिचालित हो रहा है तथा हमारा उसके साथ क्या सम्बन्ध हैइन सभी जिज्ञासाओं का शमन उपनिषदों के द्वारा ही सम्भव हो सका है।

उपनिषदों की भाषा-शैली

उपनिषदों की भाषा देववाणी संस्कृत है। इस देवभाषा के साथ भावों का बड़ी सहजता के साथ सामञ्जस्य हुआ है। ॠषियों की सहज और गहन अनुभुतियों को अभिव्यक्त करने में इस भाषा ने गागर में सागर भरने-जैसा कार्य किया है। उन ॠषियों ने अपने भाषा-ज्ञान को क्लिष्ट, आडम्बरपूर्ण अरु गूढ़ बनाकर अध्येताओं पर थोपने का किञ्जित भी प्रयास नहीं किया है। उन्होंने अपने अनुभवजन्य ज्ञान को अत्यन्त सहज रूप से, तर्कसम्मत, समीक्षात्मक, कथोपकथन, उदाहरण और समयानुकूल उपयोग करते हुए, अपने भावों को सहज ही बोधगम्य बनाने का उन्होंने प्रयास किया है।
उपनिषदों की शैली अद्भुत है। यद्यपि उन्होंने गूढ़ रहस्यों को समझने की तीव्र उत्कण्ठा और अनुभूति की गहन क्षमता को अभिव्यक्त करने में सहजता का सहारा लिया है, तथापि स्थान-स्थान पर सांकेतिक रहस्यात्मकता से पीछा छुड़ाने में वे विवश दिखाई पड़ते हैं। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। अत्यन्त गूढ़ ज्ञान को सुगम बनाने में भाषा साथ छोड़ जाती है। गूंगे के गुड़ की भांति उनका रसास्वादन संकेततो देता है, पर शब्दों के चयन में वे विवश हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अध्येता की अपनी भी बुद्धि-सीमा होती है जो उसे ग्रहण करने में सहायक नहीं हो पाती।
वेदांग
वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'। वेद पुरुष के 6 अंग माने गये हैं- कल्प, शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त तथा ज्योतिष। इन छ: को इस प्रकार बताया गया है- ज्योतिष वेद के दो नेत्र हैं, निरुक्त 'कान' है, शिक्षा 'नाक', व्याकरण 'मुख' तथा कल्प 'दोनों हाथ' और छन्द 'दोनों पांव' हैं-
शिक्षा - वैदिक वाक्यों के स्पष्ट उच्चारण हेतु इसका निर्माण हुआ। वैदिक शिक्षा सम्बंधी प्राचीनतम साहित्य 'प्रातिशाख्य' है। वैदिकमन्त्रों के स्वर, अक्षर, मात्रा एवं उच्चारण की विवेचना 'शिक्षा' से होती है। शिक्षाग्रन्थ जो उपलब्ध हैं-पाणिनीय शिक्षा (ॠग्वेद), व्यास शिक्षा (कृष्ण यजुर्वेद), याज्ञवल्क्य आदि 25 शिक्षाग्रन्थ (शुक्ल यजुर्वेद), गौतमी, नारदीय, लोमशी शिक्षा (सामवेद) तथा माण्डूकी शिक्षा (अथर्ववेद)।
कल्प - वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाने के लिए निश्चित किए गये विधि नियमों का प्रतिपादन 'कल्पसूत्र' में किया गया है। जब ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञ-यागादि की कर्मकांडीय व्याख्या में व्यवहारगत कठिनाइयाँ आईं, तब कल्पसूत्रों की रचना हुई।'कल्प' वेद प्रतिपादित कर्मों का भली-प्रकार विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। कल्प में यज्ञों की विधियों का वर्णन होता है।'
व्याकरण - इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है। भाषा नियमों का स्थिरीकरण 'व्याकरण' का कार्य है। शाकटायन व्याकरण सूत्र तथा पाणिनीय व्याकरण यजुर्वेद से सम्बद्ध माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त सारस्वत व्याकरण, प्राकृत प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कामधेनु व्याकरण, हेमचन्द्र व्याकरण आदि अनेक व्याकरण शास्त्र के ग्रन्थ भी हैं। सभी पर अनेक भाष्य एवं टीकाएं लिखी गयी हैं। अनेक व्याकरण-ग्रन्थ लुप्त हो गए हैं।
निरूक्त - शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र 'निरूक्त' कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन निघण्टुकी व्याख्या हेतु यास्क ने 'निरूक्त' की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। वेदों की व्याख्या पद्धति बताना 'निरुक्त' का कार्य है। इसके अनेक ग्रन्थ लुप्त हैं। निरुक्त को वेदों का विश्वकोश कहा गया है। अब यास्क का निरुक्त ग्रन्थ उपलब्ध है, जिस पर अनेक भाष्य रचनाएं हुई हैं।
छन्द - वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्ध है।'छन्द' के कुछ ग्रन्थ ही मिलते हैं, जिसमें वैदिक छन्दों पर गार्ग्यप्रोक्त उपनिदान-सूत्र (सामवेदीय), पिंगल नाग प्रोक्त छन्द: सूत्र (छन्दोविचित) वेंकट माधव क्ड़ड़त छन्दोऽनुक्रमणी, जयदेव कृत छन्दसूत्र के अतिरिक्त लौकिक छन्दों पर छन्दशास्त्र (हलायुध वृत्ति), छन्दोमञ्जरी, वृत्त रत्नाकर, श्रुतबोध आदि हैं।
ज्योतिष - इसमें ज्योतिष शास्त्र के विकास को दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम आचार्य 'लगध मुनि' है।ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन संस्कार एवं यज्ञों के लिए मुहूर्त निर्धारण करना है एवं यज्ञस्थली, मंडप आदि का नाम बतलाना है। इस समय लगधाचार्य के वेदांग ज्योतिष के अतिरिक्त सामान्य ज्योतिष के अनेक ग्रन्थ है। नारद, पराशर, वसिष्ठ आदि ॠषियों के ग्रन्थों के अतिरिक्त वाराहमिहिर, आर्यभट्ट, ब्राह्मगुप्त, भास्कराचार्य के ज्योतिष ग्रन्थ प्रख्यात हैं। पुरातन काल में ज्योतिष ग्रन्थ चारों वेदों के अलग-अलग थे-आर्ष ज्योतिष (ॠग्वेद), याजुष ज्योतिष (यजुर्वेद) और आथर्वण ज्योतिष (अथर्ववेद)।ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
स्मृतियाँ
'स्मृति' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। एक अर्थ में यह वेदवाङ्मय से इतर ग्रन्थों, यथा पाणिनि के व्याकरण, श्रौत, गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रों, महाभारत, मनु, याज्ञवल्क्य एवं अन्य ग्रन्थों से सम्बन्धित है। किन्तु संकीर्ण अर्थ में स्मृति एवं धर्मशास्त्र का अर्थ एक ही है, जैसा कि मनु का कहना है।
आरम्भ में स्मृति-ग्रन्थ कम ही थे। गौतम ने मनु को छोड़कर किसी अन्य स्मृतिकार का नाम नहीं लिया है; यद्यपि उन्होंने धर्मशास्त्रों का उल्लेख किया है। बौधायन ने अपने को छोड़कर सात धर्मशास्त्रकारों के नाम लिये हैं- औपजंघनि, कात्य, काश्यप, गौतम, प्रजापति, मौद्गल्य एवं हारीत। वासिष्ठ ने केवल पाँच नाम गिनाये हैं-- गौतम, प्रजापति, मनु, यम एवं हारीत। आपस्तम्ब ने दस नाम लिखे हैं, जिनमें एक, कुणिक, पुष्करसादि केवल व्यक्ति-नाम हैं। मनु ने अपने को छोड़कर छ: नाम लिखे हैं-अत्रि, उतथ्य के पुत्र, भृगु, वसिष्ठ, वैखानस (या विखनस) एवं शौनक। याज्ञवल्क्य ने सर्वप्रथम एक स्थान पर 20 धर्मवक्याओं के नाम दिये हैं जिनमें वे स्वयं एवं शंख तथा लिखित दो पृथक्-पृथक् व्यक्ति के रूप में सम्मिलित हैं। याज्ञवल्क्य ने बौधायन का नाम छोड़ दिया है। पराशर ने अपने को छोड़कर 19 नाम गिनाये हैं। किन्तु यज्ञवल्क्य एवं पराशर की सूची में कुछ अन्तर है। पराशर ने बृहस्पति, यम एवं व्यास को छोड़ दिया है किन्तु कश्यप, गार्ग्य एवं प्रचेता के नाम सम्मिलित कर लिये हैं।मनुस्मृति के अतिरिक्त प्रमुख स्मृतियाँ हैं-व्यास स्मृति,लघु विष्णु स्मृति,आपस्तम्ब स्मृति,वसिष्ठ स्मृति,पाराशर स्मृति,वृहत्पाराशर स्मृति,अत्रि स्मृति,लघुशंख स्मृति,विश्वामित्र स्मृति,यम स्मृति,लघु स्मृति,बृहद्यम स्मृति,लघुशातातप स्मृति,वृद्ध शातातप स्मृति,शातातप स्मृति,वृद्ध गौतम स्मृति,बृहस्पति स्मृति,याज्ञवलक्य स्मृति और बृहद्योगि याज्ञवल्क्य स्मृति।
महाकाव्य
'रामायण' एवं 'महाभारत', भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में काफ़ी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है।
रामायण
रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे 'चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता' भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तराकाण्ड नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया। भूशुण्डि रामायण को 'आदिरामायण' कहा जाता है।
महाभारत
महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम 'जयसंहिता' (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात यह वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण भारतकहलाया। कालान्तर में गुप्त काल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह 'शतसाहस्त्री संहिता' या 'महाभारत' कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख 'आश्वलाय गृहसूत्र' में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेघ, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है। महाभारत में हरिवंशनाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।
पुराण
प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। ब्रह्म वैवर्त पुराण में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं-
विष्णु संबंधित
ब्रह्मा संबंधित
शिव संबंधित
विष्णु पुराण              
ब्रह्म पुराण
शिव पुराण
भागवत पुराण
ब्रह्माण्ड पुराण
लिङ्ग पुराण
नारद पुराण
ब्रह्म वैवर्त पुराण
स्कन्द पुराण
गरुड़ पुराण
मार्कण्डेय पुराण
अग्नि पुराण
पद्म पुराण
भविष्य पुराण
मत्स्य पुराण
वराह पुराण
वामन पुराण
कूर्म पुराण

        

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