पत्थर और तांबे के उपकरणों का साथ- साथ प्रयोग के कारण ताम्र - पाषणिक संस्कृति कहलाई, ये न तो शहरी हैं न हडप्पा काल की। मानव के उपयोग में आने वाली सबसे पहली धातु तांबा है, इस युग के लोग अधिकांशतः पत्थर और तांबे की वस्तुओं का प्रयोग करते थें। मुख्यतः ग्रामीण समुदाय थे, छः भागों में विभक्त 1. अहाड़ बनास क्षेत्र 2. मध्य प्रदेश 3. उतरी डकेन 4. डकेन (भारत का दक्षिणी पठार) क्षेत्र 5. गंगा का दोआब क्षेत्र 6. पूर्वी क्षेत्र।
बनास संस्कृति के साक्ष्य दक्षिणी - पूर्वी राजस्थान में बनास नदी के तटीय क्षेत्रों से प्राप्त , इस संस्कृति के अवशेष अहाड़ बागोर व मिलिन्द नामक पुरास्थलों से उपलब्ध,
विशिष्टता काली और लाल मिट्टी के बर्तनों द्वारा जानी गयी
इस संस्कृति के निर्माता आखेट एंव मत्सय आखेट जैसे कार्यों में संलग्न।
कायथा संस्कृति ( 2000 ई. पू. से 1600 ई. पू.) का नाम चम्बल की उपशाखा काली सिन्ध के तटीय क्षेत्र पर स्थित कायथा नामक स्थल से उपलब्ध महत्वपूर्ण साक्ष्यों के आधार पर ,
खास विशेषता तीन आकार - प्रकार के मिट्टी के बर्तन, सर्वाधिक प्रचलित मोटे, और मजबूत ‘ब्राउन स्लिप्ड वेयर‘ नामक बर्तन , बर्तनो पर बने चित्र अधिकांश रेखाचित्र श्रेणी के , संस्कृति का प्रधान केन्द्र मालवा , मालवा संस्कृति मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में फली एंव फूली , कालक्रम (1700 ई.पू. से 1200 ई.पू.),
प्रमुख विशिष्टता हल्के पीले और नारंगी रंग के मिट्ठी के बर्तन , जिनमे काले और गहरे भूरे रंग से चित्रकारी, मालवा मृद्भांड़ ताम्रपाषाण मृद्भाडों में उत्कृष्टतम , कृषि के अतिरिक्त ये लोग आखेट एंव मत्स्य आखेट जैसे कार्यों में भी संलग्न।
जोर्वे संस्कृति से संबंधित साक्ष्य कोंकण क्षेत्र को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण महाराष्ट्र से उपलब्ध, कालक्रम (1400 ई.पू. से 7000 ई.पू.), मुख्यतः ग्रामीण लेकिन दैमाबाद और इनामगाँव की पहुँच नगरीय स्तर तक, मृतकों का संस्कार दफना कर पूर्ण किया जाता था, दफनाए गए शवों के सिर उतर और पैर दक्षिण दिशा में , मूलतः कृषक।
अब तक पता चले 200 जोर्वे स्थलों में गोदावरी का दाईमाबाद सबसे बड़ा।
याद रखने योग्य तथ्य: ताम्र पाषाण युग के लोग मातृ - देवी (इनामगांव से बरामद) की पूजा करते थे, वृषभ (सांड) धार्मिक सम्प्रदाय का प्रतीक जो मालवा और राजस्थान में मिनी सामाजिक असमानता आरम्भ।
महत्व:
चित्रित मृद्भाडों का सबसे पहले प्रयोग ,
सबसे पहले ताम्रपाषाण जनों ने ही प्रायद्वीपीय भारत में बइे गाँव बसाए,
शव-संस्कार विधियां भिन्न - पश्चिम भारत में संपूर्ण शवाधान प्रचलित, पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान,
संस्कृति ग्रामीण पृष्ठभूमि पर खडी,
लिखने की कला से अनभिज्ञ, कताई और बुनाई (मालवा से चरखे और तकलियाँ बरामद) से परिचित,
वस्त्र निर्माण से परिचित (महाराष्ट्र में कपास, सन और सेमल की रूई से बने धागे बरामद)।
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